Book Title: Dhamma Kaha Author(s): Pranamyasagar Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti View full book textPage 5
________________ धम्मकहा 24 सा कथां यां समाकर्ण्य हेयोपादेयनिर्णयः। कर्णकट्वीभिरन्याभिः किं कथाभिर्हितार्थिनाम्॥ उ.पु. ७४/११ अर्थात् “कथा वही कहलाती है कि जिसके सुनने से हेय, उपादेय का निर्णय हो जाता है। हित चाहने वाले पुरुषों को कानों से कड़वी लगने वाली अन्य कथाओं से क्या प्रयोजन है?" इसी प्रकार संवेगजननं पुण्यं पुराणं जिनचक्रिणाम्। बलानां च श्रुतज्ञानमेतद् वन्दे विशुद्धये॥ उ.पु. ७०/२ अर्थात् “जिनेन्द्रभगवान, नारायण और बलभद्र का पुण्यवर्धक पुराण संसार से भय उत्पन्न करने वाला है इसलिए इस श्रुतज्ञान को मन-वचन-काय की शुद्धि के लिए वन्दना करता हूँ।" आचार्यों के इस अभिप्राय से अत्यन्त आदर भाव प्रथमानुयोग की कथा-कहानियों पर और श्रद्धा से सुनने का भाव भव्यजीव में अवश्य आ जाता है। इसी कारण से जैनदर्शन में जहाँ एक ओर सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक ग्रन्थों की बहुलता है वहीं पुराण, चारित्रपरक ग्रन्थों की भी बहुलता है। संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन विशाल परिमाण में किया गया है जिसका उल्लेखन यहाँ करना अप्रयोजनीय है। जिस तरह संस्कृत भाषा में विपुल साहित्य सभी विधाओं और विद्याओं का जैन जगत् में उपलब्ध है उसी प्रकार प्राकृतभाषा में भी उपलब्ध है। प्राकृतभाषा में जैन मनीषियों ने कथासाहित्य को लेकर नाटक आदि तो रचे हैं, स्तुतियाँ लिखी हैं किन्तु दिगम्बर जैन साहित्य में कथानक गद्यशैली में उपलब्ध नहीं होते हैं। गद्यात्मक कथाओं की प्राकृतभाषा में महती आवश्यकता देखते हुए परमपूज्य आचार्य श्रीविद्यासागरजी महाराज के आशीर्वाद से प्राप्त अल्पज्ञान के क्षयोपशम से यह महनीय कार्य विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है। आशा है कि जहाँ यह कार्य कथासाहित्य के रूप में एक ओर मनवचन-काय को शुद्ध करेगा वहीं दूसरी ओर प्राकृत वाङ्मय की अभिवृद्धि का एक नया चरण सिद्ध होगा। प्राकृतभाषा में लिखने-पढ़ने की सृजनात्मक प्रवृत्ति और बढ़े इसी भावना के साथ..... -मुनि प्रणम्यसागर अतिशयक्षेत्र बिजौलियाँ (राजस्थान) वर्षायोग २०१६Page Navigation
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