Book Title: Dhamma Kaha
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Jain Vidya Shodhalay Samiti

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Page 4
________________ धम्मकहा 200 3 अन्तर्भाव महापुरुषों का जीवन सदा प्रेरणादायी होता है। यदि हमारे सामने ऐतिहासिक पुरुषों का कोई कथानक उपलब्ध न हो तो न तो हम कुछ आदर्श बन सकते हैं और न अपनी पीढ़ी को आदर्श बना सकते हैं। अन्य अनेक सम्प्रदायों में इस प्रकार की मानवीय जीवन मूल्यों की वृद्धि करने वाली और व्यक्ति को धर्ममार्ग पर लगाने वाली वास्तविक कथाओं का प्रायः अभाव है। | इसलिए उन लोगों को कपोल कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं। उनकी अपनी स्वतः कल्पनाओं के कारण मनीषियों का ऐसा विश्वास हो गया कि कहानी- कथा - किस्सों का वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता है। इसलिए तार्किक, आध्यात्मिक और सैद्धान्तिक लोगों का प्रायः कथा-कहानी पर विश्वास नहीं रहता है। किन्तु जैनदर्शन में यह बात नहीं है। आचार्य समन्तभद्र जैसे तार्किक आचार्यों ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में धर्म की आस्था और चारित्रमार्ग को अपनाने के लिए जिन नामों का उल्लेख किया है वे सभी प्रसिद्ध प्ररुष / स्त्रियाँ हुई हैं। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् आध्यात्मिक आचार्य को भी अनेक दृष्टान्तों का सहारा लेना पड़ा है तभी उन्होंने भावपाहुड़ आदि ग्रन्थों में शिवकुमार मुनि, भव्यसेन, बाहुबली, द्वीपायन आदि का नाम लेकर प्रसिद्ध पुरुषों की घटनाओं पर अपना विश्वास अभिव्यक्त किया है। इसी प्रकार महान् सैद्धान्तिक आचार्य वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जहाँ अनेक दृष्टान्तों को लिखा है वहीं आदिपुराण, उत्तरपुराण जैसी रचनायें करके यह सिद्ध कर दिया है कि बिना कथा-कहानी के धर्म का महत्व खड़ा करना बिना नींव के प्रासाद की कल्पना करना जैसा है। आचार्यों ने पुराणग्रन्थों में प्रत्येक कथानक के साथ यथासमय जैन सिद्धान्तों का निरूपण इतनी कुशलता के साथ किया है कि किसी अजैन विद्वान ने कहा है कि - " कथायें लिखना तो कोई जैन विद्वानों से सीखे।" इन कथाओं का सर्वाधिक वर्णन पुराण ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों को प्रथमानुयोग का ग्रन्थ कहा जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि अव्युत्पन्न अर्थात् बुद्धिहीनजनों के लिए यह प्रथनानुयोग है, ऐसा मानना वस्तुतः उनका यथार्थज्ञान में न्यूनयता के कारण है। महान् जैनाचार्य समन्तभद्रदेव ने प्रथमानुयोग को 'बोधिसमाधिनिधानं' अर्थात् बोधि- समाधि का खजाना कहा है। आचार्य जिनसेन महापुराण में कहते हैं कि 'पुरुषार्थोपयोगित्वात् त्रिवर्गकथनं कथा' अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थ के लिए उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा कहलाती है। ये कथाएँ आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी कथा के भेद से चार भागों में विभक्त हैं। इनमें से विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करने वाली संवेगिनी कथा है और वैराग्य उत्पन्न करने वाली निर्वेजनी कथा है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं दो प्रकार की कथाओं का वर्णन है। आचार्य गुणभद्रदेव उत्तरपुराण में लिखते हैं कि

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