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જૈન તત્વદર્શ
ए पूर्वोक्त चार मूलातिशय और आठ प्रातिहार्य एव वारा गुणो करी विराजमान अर्हन्त भगवन्त परमेश्वर है। और अठारह दूषण कर के रहित है। मो अठारह दूषणो के नाम दो श्लोक कर के लिखते है ।
अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः । हासो रत्यरती भीतिर्जगप्सा शोक एव च ।। कामो मिथ्यात्वमज्ञान निद्रा चाविरतिस्तथा। रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेषामण्टादशाप्यमी ॥
(अभि. चिं. का १, श्लो ७२-७३ ) इन दोनो श्लोको का अर्थ : १. 'दान देने में अन्तरायx' २ 'लाभगत अन्तराय' ३. 'वीर्यगत अग्तराय' ४. जो एक बेरी भोगिये सो भोग-पुण्पमालादि, तद्गत जो अतराय सो ‘भोगान्त राय' ५ जो बार वार भोगने में आवे सो उपभोग. स्त्री आदि, घर आदि, ककण कुण्डलादि, तद्गत जो अन्तराय सो ‘उपभोगान्तराय' ६. 'हास्य '-हसना, ७. 'रति'
xजो कर्म आत्मा के दान, दान, वीर्य, भोग और उपभोग रूप शक्तियो का घात करता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। उसके दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय ये पाच भेद है।
१. दान की सामग्री उपस्थित हो, गुणवान् पात्र का योग हो और दान का फल ज्ञात हो तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता वह 'दानाम्तराय' है ।