Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 6
________________ सूत्र-परिचय प्रस्तुत शास्त्र की रचना का मुख्य लक्ष्य मुमुक्षु साधकों को अल्प समय में श्रमणाचार का आवश्यक ज्ञान प्रदान कर उन्हें कल्याण-मार्ग की साधना में आगे बढ़ाना है। आचारांगादि अन्य अंग शास्त्रों का अध्ययन समय और कुशाग्र बुद्धि की अपेक्षा रखते हैं। अत: साधारण बुद्धि वाले आजकल के साधक उनसे जल्दी बोध प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसी दृष्टिकोण को लेकर आचार्य शय्यम्भव ने साधना में आवश्यक विषय को दस विभागों में छाँट-कर दशवैकालिक के रूप में उनका पूर्वो से संकलन कर अभ्यासार्थियों के लिये गागर में सागर भरने का काम किया है। दशवकालिक के प्रथम अध्ययन में साधना के मुख्य अंग धर्म के स्वरूप, उसकी महिमा आदि का परिचय दिया गया है। धर्म की आराधना दीप्तिमान और कामनामुक्त साधक ही कर सकता है। अत: दूसरे अध्ययन में कामना का निवारण करने की शिक्षा दी गई है। साधक कामना से तभी मुक्त रह सकेगा, जब उसे आचार और अनाचार का ज्ञान होगा। अत: तीसरे अध्ययन में प्रमुख रूप से 52 अनाचारों का परिचय दिया गया है। उसका नाम 'क्षुल्लकाचार-कथा' रखा गया है। अनाचार से बचकर साधक आचार मार्ग की सम्यक् आराधना कर सकें, इसलिये चतुर्थ 'धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययन' में रात्रि-भोजन विरमण सहित छ: व्रतों की और षड्जीवनिकाय की रक्षा की शिक्षा दी गई है। महाव्रतों का सम्यक् परिपालन तब ही सम्भव हो सकता है, जब आहार, विहार और सम्भाषण में विवेक से काम लिया जावे। अत: पांचवें अध्ययन में दो उद्देशकों से साधकों के आहार-ग्रहण और परिभोग के नियम बताये गये हैं। आचारांग में वर्णित पिण्डैषणा का इस अध्ययन में संक्षिप्त सार प्रस्तुत कर दिया गया है। छठे अध्ययन में 'क्षुल्लकाचार कथा' में बताये गये अनाचारों के मौलिक 18 स्थान बतलाकर श्रमणाचार की विस्तार से शिक्षा दी है। उसको 'महाचार कथा' अथवा 'धर्मार्थकाम अध्ययन' नाम से भी कहा जाता है। साधना में अहिंसा महाव्रत के परिपालन हेत जैसे पिण्ड-शद्धि का ज्ञान आवश्यक है. इसी प्रकार अहिंसा और सत्य के लिये वाक्य-शुद्धि की भी उतनी ही आवश्यकता है। बहुत से व्रती अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व्रत को धारण करके भी बोलने में वाच्य-अवाच्य का ध्यान नहीं रख पाते। उन्हें यह भी मालूम नहीं रहता कि संयमी को कैसा वचन बोलने से व्रत दूषित होता है। अतः सप्तम अध्ययन में भाषा के दोषों का वर्जन कर हित-मित और पथ्य भाषा बोलने की शिक्षा दी गई है। भाषा शुद्धि का महत्त्व भी आहार शुद्धि से कम नहीं है।

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