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पंडित सुखलालजी करने लगा । और फिर तो उनकी विकलता, निराशा तथा शून्यता विनष्ट हो गई । उनके स्थान पर स्वस्थता एवं शांतिका सूर्योदय हुआ । अब युवक सुखलाल का जीवन-मंत्र बना-'न दैन्यं, न पलायनम् ।' महारथी कर्णकी भांति 'मदायत्तं तु पौरुष' के अमोघ अस्त्रसे भाग्यके साथ लड़नेका दृढ़ संकल्प कर लिया। अपनी विपदाओंको उन्होंने विकासका साधन बनाया । 'विपदः सन्तु नः शश्वत्'--माता कुन्ती द्वारा व्यक्त महाभारतकारके ये शब्द आज भी उन्हें उतने ही प्रिय और प्रेरक हैं । सुखलालने चेचककी बीमारीसे मुक्त होकर अपना जीवन-प्रवाह बदल दिया । सफल व्यापारी होनेवाले सुखलाल विद्योपार्जनके प्रति उन्मुख हुए, और जन्मसे जो वैश्य थे वे कर्मसे अब ब्राह्मण ( सरस्वती-पुत्र ) बनने लगे । १६ वर्षकी वयमें द्विजवके ये नवीन संस्कार ! लीलाधरकी लीला ही तो है।
विद्या-साधनाके मार्ग पर सुखलालका अंतर्मुखी मन आत्माके प्रति गमन करने लगा। उन्होंने विद्यासाधनाका मार्ग अपनाया। अपनी जिज्ञासा-तुष्टिके लिये वे साधु-साध्वी और संत-साधकोंका सत्संग करने लगे। इस सत्संगके दो शुभ परिणाम आये। एक ओर धर्मशास्त्रोंके अध्ययनसे सुखलालकी प्रज्ञामें अभिवृद्धि होने लगी और दूसरी ओर व्रत, तप और नियमपालन द्वारा उनका जीवन संयमी एवं संपन्न बनने लगा।
वि० सं० १९५३ से १९६० तकका ६-७ वर्षका काल सुखलालके जीवन में संक्रांति-काल था। उस अवधिमें एक बार एक मुनिराजके संसर्गसे सुखलाल मन-अवधानके प्रयोगकी ओर मुड़े । एक साथ ही सौ-पचास बातें याद रखकर उनका व्यवस्थित उत्तर देना कितना आश्रर्यजनक हैं ! किन्तु अल्प समयमें ही सुखलालने अनुभव किया कि यह प्रयोग न केवल विद्योपाजनमें ही बाधक है, अपितु उससे बुद्धिमें वंध्यत्व तथा जिज्ञासावृत्तिमें शिथिलता आ जाती है। फलतः तत्काल ही इस प्रयोगको छोड़कर वे विद्या-साधनामें संलग्न हो गये। आज भी यदि कोई अवधान सीखनेकी बात छेड़ता है तो पंडितजी स्पष्टतः कहते हैं कि बुद्धिको वंध्या और जिज्ञासाको कुंठित बनानेका यह मार्ग है। - इसी प्रकार एक बार सुखलालको मंत्र-तंत्र सीखनेकी इच्छा हो आई । अवकाश तो था ही; बौद्धिक प्रयोग करनेका साहस भी था। सोचा-सांपका जहर उतार सकें या अभीप्सित वस्तु प्राप्त कर सकें तो क्या ही अच्छा ? लगे मंत्र-तंत्र सीखने, किन्तु अल्पानुभवसे ही उन्हें यह प्रतीति हो गई कि इन
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