Book Title: Dangvopakhyanam
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir | चार इंद्रित्रो तमने हुं स्वर्गनुं सूख देखाडवाने इच्छुछु. परंतु मारा शरिरने विशे। 7 मनेंद्रिन काम नथी. 24 / ॥श्लोक॥ एतावदुक्तावचनंगतःस्वर्गेतपोधन : दृष्टमिंद्रासनंतनशोभनंचमनोरम // 25 // टीका-तपस्वि छे धन ते जेमने एवा दुर्वासा मुनी ए प्रकारवडे करीने पोतानी ईद्रियोने समजावता थका स्वर्ग लोकने विशे गया, जश्ने सुशोनित एवं इंद्रनुं सिंगासन जोयु. 25 ॥श्लोक // सौवर्णमंदिरंदिव्यंजमालोपशोभितं // कांचनैःपद्मरागैश्चचित्रकार विचित्रितं // 26 // टीका-अने वळि ए सिंहासन केq के सुवर्णमय दिव्य एवं अने नाना प्रकारनां मंदिरो सुवर्णमय इजाये शोभि रह्या छ, अने पद्मराग मणि काचने सहवर्तमान चित्र विचित्र करयांथकां अत्यंत शोना त्रापेछे. 26 ॥श्लोक। तोरणैश्चागरुधूपैर्वादित्राणांचनिस्वनैः सप्तश्रृंढसमायुक्तोऐरावणगजोत्तमः // 27 // टीका-एटलुंज नहीं पण सातपुंडोनो ऐरावणहाथी जे स्थळने विशे शोभि रह्यो छे, तदनंतर तोरण धुप दिपादि सहवर्तमान वाजिंत्र वागी रह्यांछे. 27 ॥श्लोक॥ पारिजाततरुश्चैववांछितार्थफलप्रद : नृत्यगीतविनोदाश्चभवतिचग्रह ग्रह॥२८॥ टीका--मनवांछित फलने आपनारो पारिजातकनो वृक्ष अने सर्व मंदिरोने For Private and Personal Use Only

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