Book Title: Dangvopakhyanam
Author(s):
Publisher:
View full book text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir सांभळ्यां त्यांतो माहा दुःखना सागरमां मुबायो. रे प्रारब्ध मारुं क्यम कोइ रक्षण करतुं नथी. 17 लोक॥ विध्यानिंदाप्रकुर्वाणःसमुद्रशरणंगतः॥ तुरगीसहितोराजन्भयेनप्ररु। दन्युनः॥१८॥ टीका-मननी साथे विंध्याचळनी निंदा करतोसतो अश्वनीने दोरीने समुद्रने शरण जइ पोहोचे छे ने महा भयवडे करिने रुदन करे छे. 18 ॥श्लोक।' उदधिंतुनमसत्यवचनंकातरंवदेत् // देयमेशरणंदेवनिम्नगाधिपवा रिधे // 19 // टीका-हे निम्नगाधिप वारिधे! हे नवसे नवांणु नदियोना स्वामि, हुं तमने वारंवार नमस्कार करूंछु हे प्रभो मने शरण राखो. 19 लोक॥ क्रष्णातुभयमापन्नःशरणार्थीयथातथा॥ तस्यतद्वचनंश्रुत्वासमुद्रोवाक्यमब्रवीत् // 20 // टीका-हे प्रनो ऋष्णथी मने भय उत्पन्न थयोछे, माटे जे ते | प्रकारवडेकरीने ढुं तमारे शर्णआव्योछु,एवांवचन डांगवनांसांभळीनेसमुद्र बोलेछे.२० समुद्रउवाच॥ समुद्र बोलतोहवो; ॥श्लोकादतंमेदैवतंतेनसारवस्तुचमेसुत॥ चतुर्दशानांसोराजाक्रष्णेनकोनयुध्यते॥२१॥ टीका-हे राजन्ते क्रष्णे तो माझं बधु दैवत लेइ लिधुंछे अने सारवस्तुएवीजे कोइमारीसुता लक्ष्मि महास्वरुपवान तेनुं हरण करीने परण्या छे,माटे चौदलोकमां एनीसाथे कोइ युद्धे झिते एम नथी. 21 For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132