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प्रस्तावना
तटकी ओर बढ़नेका यत्न करता है। इतने में दो व्यक्ति आकाशमार्गसे वहाँ पहुँचकर उसे धमकाने लगते हैं, पर उस ( जिनदत्त ) के वीरतापूर्ण वचनोंको सुनकर वे पानी-पानी हो जाते हैं, और उसे अशोकश्री नामक विद्याधरनरेशके पास लिवा ले जाते हैं। वह अपनी कन्या शृङ्गारमतीका उसके साथ ब्याह कर देता है ।
चं० च० में चचित हिरण्यदेव पहले अजितसेनको धमकाता है, पर बाद में उसकी वीरतासे प्रसन्न होकर उसकी सहायता करता है। राजा जयवर्मा के प्रतिद्वन्द्वी धरणीध्वजको मारनेमें अजितसेनको यही देव सहयोग देता है । अन्ततोगत्वा राजा जयवर्मा प्रसन्न होकर अपनी कन्या शशिप्रभाका अजितसेनके साथ विवाह कर देता है।
सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेपर जिनदत्तच० और चं० च० को उक्त घटनाओं में पर्याप्त समानता है, अतः यह स्पष्ट है कि वीरनन्दीने जिनदत्तच० से भी सहायता ली। गुणभद्र ने जिन घटनाओंसे जिनदत्तका उत्कर्ष सिद्ध किया है, उन्हीं जैसी घटनाओंसे वीरनन्दीने अजितसेनका ।
(१३,१७,२३ ) सुवर्णमाला, कनकमाला; चन्द्रपुरी, चन्द्रपुर; सकलर्तु, सर्वर्तुक-ये नाम कुछ भिन्न-से प्रतीत होते हैं, पर इनका अभिप्राय भिन्न नहीं है । सुवर्ण कनकका, पुरी पुरका और सकल सर्वका पर्यायवाचक है। इनमें छन्दके अनरोधसे थोडा-सा अन्तर आया है।
(१५ ) पद्मनाभको राजधानीमें एक जंगली हाथीके प्रवेशको घटना जो च० च० में वर्णित है, उसका आधार उ० पु० के स्थानमें जिनदत्तच० (६,८१-९१ ) प्रतीत होता है। इन दोनों कृतियोंमें वर्णित घटनाओं में अत्यधिक साम्य है। उक्त घटनाओंके अतिरिक्त दोनोंमें पद्यगत साम्य भी यत्र-तत्र है। चन्द्रप्रभचरितम् और जिनदत्तचरितमके कतिपय पद्योंकी क्रमशः तुलना कीजिए-चं० च० १,१७, २,१२४; २,११६, ३,३१, ३,३२, ३,६७; ३,७४, ६,१७, ६,१९; ६,२१, ११,७६-९० क्रमशः जि० च० १,१३; २,७; ३,७४, १,६१, १,६३; १,७२; १,७५-७६; ६,७; ६,९; ६,१३; ६,७७-९१ ।
___अतएव यह स्पष्ट है कि चं० च० का कथानक गुणभद्रके उ० पु० से तथा कतिपय घटनाओंके स्रोत उन्हींके जिनदत्तच० से लिये गये हैं।
(१८) चं० च० में उ० पु. की भाँति पाँच कल्याणकोंकी पांचों मितियां न देकर 'नेमिनिर्वाणम्'की भाँति केवल दो ही मितियाँ दी गयी हैं। इसका कारण कौन-सी परम्परा रही है, यह ज्ञात नहीं हो सका ।
शेष विषमताओंके विषयमें सम्भव है वीरनन्दीके सामने कोई अन्य आधार रहा हो। जो कुछ भी हो, तुलनात्मक सूक्ष्म अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि चं० च० की कथावस्तुका मुख्य आधार उपलब्ध पुराणोंमें उ० पु० ही है। [५] चं० च० की प्रासङ्गिक कथाएँ
(१) सुनन्दाका निदान-सुगन्धि देशके श्रीपुर नगरमें देवाङ्गद वणिक् रहता था, जिसकी पत्नीका नाम श्री और पुत्रीका नाम सुनन्दा था। किसी दिन वह एक गर्भवती नवयुवतीके श्रीहीन शरीरको देखकर जन्मान्तरमें भी युवावस्थाके प्रारम्भमें उस जैसी न होनेका निदान बाँध लेती है, और आजीवन गृहस्थधर्मका परिपालन करती है। मृत्युके पश्चात् वह सौधर्म स्वर्गमें देवी होती है। वहाँसे चयकर राजा दुर्योधनकी पुत्री तथा राजा श्रीषेणकी पत्नी श्रीकान्ता होती है। पिछले जन्मके अशभ निदानके कारण उसे प्रारम्भिक नवयौवनमें सन्तानकी प्राप्ति नहीं होती। [चं० च० ३,५३-५५]
(२) दो किसान-सुगन्धि नामका एक देश था। उसमें किसी समय राजा श्रीषेणका शासन रहा। उनके शासनकाल में उन्हीं की राजधानी-श्रीपुरमें दो किसान गृहस्थ रहते थे। उनमें से एकका नाम शशी था और दूसरेका सूर्य । शशीने किसी दिन सेंध लगाकर सूर्यका सारा धन चुरा लिया। पता लगनेपर राजाने बरामद हआ धन सूर्यको दिलवाया और शशीको प्राणदण्ड । चोरी करनेसे शशी नाना कुयोनियोंके दुःख भोगकर चण्डरुचि नामक असुर होता है और सूर्य सत्कर्म करनेसे सुयोनियोंके सुख भोगकर हिरण्य नामक देव । [चं. च० ६,३३-३५ ] इन कथाओंका स्रोत उ० पु० में नहीं है ।
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