Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ एक श्रावक ने नग्न दिगम्बर साधु के दर्शन एवं उनके प्रवचन सुनते ही उनके प्रति भक्तिभाव से अभिभूत होकर मन में सोचा - “महाभाग्य से आज मुझे ऐसे तत्त्वज्ञानी मुनिराज के दर्शन हुए हैं। क्यों न इनसे ही आत्मानुभूति का उपाय पूछ लूँ? ये तो क्षण-क्षण में आत्मावलोकन करते ही हैं। इस विषय को इनसे अच्छी तरह और कौन समझा सकता है ?" फिर क्या था, उसने तत्काल ही हर्षित होकर मुनिराज से कहा - "हे गुरुदेव ! आपके अन्तर में रत्नत्रय से परिणत जैसा आत्मा विराज रहा है, कृपया मुझे भी वह बताइये, ताकि आप जैसी आत्मानुभूति मुझे भी हो सके। मैं भी आप जैसा निर्ग्रन्थ बनकर आत्मकल्याण कर सकूँ।" __ मुनिराज श्री ने श्रावक की हार्दिक भावना और जिज्ञासा जानकर प्रसन्नता प्रगट की और कहा - "भाई! आत्मानुभूति के लिए पहले वस्तु स्वातंत्र्य को समझना होगा, फिर पर के कर्तृत्व के भार से निर्भार होने पर उपयोग स्वतः अन्तर्मुख होने लगेगा। पहले आगम के अभ्यास से युक्तियों के अवलम्बन से एवं परम्परा गुरु के उपदेश से अपने में परिपूर्ण, पर से अत्यन्त निरपेक्ष ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा की प्रतीति होगी, श्रद्धा होगी; फिर उसमें एकाग्र होने पर अपने आत्मा में ही कारण परमात्मा से स्वत: भेंट हो जायेगी। इसप्रकार स्वरूप में क्षणिक उपयोग स्थिर होने पर चिदानन्द चैतन्य आत्मा से, कारण परमात्मा से भेंट हो जाती है। इस प्रक्रिया में समस्त सांसारिक क्लेश की जड़ें हिल जाती हैं। यह सब काम चौथे गुणस्थान में हो जाता है। तत्पश्चात् पंचम गुणस्थान में अप्रत्याख्यान क्रोधादि के अभाव में एकदेश संयम होता है, जिसमें क्षुल्लक, ऐलक तक की भूमिका हो जाती है। तत्पश्चात् मुनि भूमिका में आने पर तो क्रोधादि कषायों की तीन चौकड़ी कषाय के अभाव से सब सांसारिक क्लेश जड़ मूल से उखड़ जाते हैं और मुनि क्षण-क्षण में आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का रस पीने लगते हैं। इस सम्यग्दर्शन के साथ होनेवाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान मुनिधर्म साधन की प्रक्रिया कहलाता है और इसी में जमने-रमने का नाम 'निश्चय सम्यक् चारित्र' है। इन्हीं तीनों का एक नाम रत्नत्रय है। ऐसे निश्चय रत्नत्रय के धारी व्यक्ति का बाह्य आचरण व्यवहार चारित्र कहलाता है। एतदर्थ तुम अभी घर में रहकर ही कुछ दिनों नियमित स्वाध्याय करो। सात व्यसनों की प्रवृत्ति छोड़ो, श्रावक के आठ मूलगुणों का पालन करो । स्वाध्याय से सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का, सात तत्त्वों का तथा स्व-पर भेदविज्ञान और आत्मानुभव की प्रक्रिया का ज्ञान होगा। पाँच पापों का स्थूल त्याग होगा, तभी मुनि बनने की योग्यता का विकास होगा, ऐसी योग्यता विकसित होने पर ही मुनिव्रत लेना उचित है। मुनि की उक्त भूमिका में अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत, ईर्याभाषा-ऐषणा आदि पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रिय विजय, षट् आवश्यक तथा अदन्तधोवन, अस्नानव्रत, भूमि शयन, केशलोंच, नग्नता, एक बार खड़े रहकर आहार लेना - ये शेष सात गुण मिला कर कुल २८ मूलगुणों का निर्दोष पालन सहज होने लगता है। इनके अतिरिक्त मुनिराज की भूमिका में अनेक उत्तर गुणों का पालन सहज होने लगता है। उन उत्तर गुणों में कुछ इसप्रकार हैं। जैसे वे क्षुधा-तृषा आदि २२ परिषह जीतते हैं, उपसर्ग सहते हैं, १२ प्रकार के तप करते हैं। उत्तमक्षमा आदि १० धर्मों की आराधना एवं १२ भावनाओं का चिन्तन निरन्तर करते हैं। इसप्रकार चैतन्यस्वभाव में एकाग्रता द्वारा जो मुनि मुक्ति की साधना करते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं। उनको प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में आत्मानुभव होता है। ___ ऐसे साधु होने की पूर्व भूमिका में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन होता है, तत्पश्चात् अन्तर में विशेष वैराग्यपूर्वक, सर्वसंग त्यागी होकर, अन्तरस्वभाव में एकाग्रता के उग्र पुरुषार्थ द्वारा चारित्र दशा प्रगट करके मुनि होते हैं। ऐसे भावलिंग सहित द्रव्यलिंगी मुनि हुए बिना मुक्ति नहीं होती। अत: अंतत: मुनिपद तो लेना ही होगा, किन्तु सम्यग्दृष्टि अपनी शक्ति और श्रद्धा को विचार कर विवेकपूर्वक ही मुनिव्रत लेते हैं, भावुकता में जल्दी नहीं करते। भावलिंग के साथ जो दिगम्बरत्व होता है, वही 15

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