Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु दिगम्बर मुनि की आहार चर्या, नग्नता द्रव्यलिंग के भेद ७७ नमन आदि कराने का भाव ही नहीं; तथापि जो उन्हें वंदन नहीं करता, उसे सच्चे गुरु का अवर्णवाद करनेवाला होने से दर्शनमोह का बंध होता है। अट्ठाईस मूलगुण आदि सभी गुणों की पूर्णता होने पर भी जो पुरुष यह छल करता है एवं सन्देह करता है कि अमुक मुनिराज को सम्यग्दर्शन नहीं है और सम्यग्दर्शन के बिना उन्हें कैसे नमस्कार किया जाये तो वह मुनित्व से ही इन्कार करनेवाला है; क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि अपने स्थूलज्ञान से किसी के सम्यग्दर्शन का पता लगाया जा सके। अतः सम्यग्ज्ञान जैसे अमूर्त अतीन्द्रिय तत्त्व का पता किये बिना मुनिराज को नमस्कार नहीं किया जायेगा तो फिर लोक के सभी साधु वन्दनीय नहीं रह सकेंगे। इसीलिए मुनिराज में जहाँ जिनोपदिष्ट व्यवहारधर्म की परिपूर्णता पायी जाये तो वे अवश्य ही वन्दन के योग्य होते हैं; क्योंकि व्यवहारी की गति व्यवहार तक ही होती है। कोई कारण न दिखायी देने पर भी किसी के चारित्र के संबंध में सन्देह करना चारित्र का बहुत बड़ा अपमान है। किसी भी लौकिक अथवा लोकोत्तर प्रयोजन के अनुरोध से मुनि का नग्नता से भिन्न कोई भी वेष हमारे सम्मान का विषय नहीं हो सकता। __यह भी कहा जाता है कि “व्यवहार में लौकिक प्रयोजन के अनुरोध से जैसे हम लौकिकजनों को अभिवादन करते हैं, उसीतरह साधुओं को भी कर लिया जाये तो क्या आपत्ति है ?" लोक-व्यवहार में लौकिक प्रयोजन से जो भी अभिवादन आदि का शिष्टाचार होता है, उसमें शुद्धरूप से लौकिक प्रयोजन ही होता है। वे किसी धर्म के माननेवाले होने पर भी वे लौकिक पुरुष ही होते हैं, अतएव लौकिकजनों के साथ यथायोग्य व्यवहार निभाने में सम्यक्त्व दूषित नहीं होता। मुनि आत्मा के अभ्यास में परायण होते हैं। अतः वे बारम्बार स्वरूप गुप्त होते रहते हैं। सविकल्पदशा में भी मुनिधर्म की मर्यादा लांघकर बाहर नहीं जाते। ___ 'भरतजी घर में ही वैरागी' के अनुसार समकिती गृहस्थाश्रम में भी वैरागी होकर रह सकता है; परन्तु मुनिराज तो वैराग्य के शिखर पुरुष हैं, आतस्मा से उनका वैराग्य तो निराला ही होता है। ___ मुनिराज को आत्मा से बाहर आना बिल्कुल ही नहीं सुहाता । छठवें गुणस्थान में बाहर आना पड़ता है; परन्तु उन्हें बाहर आना बोझरूप लगता है; क्योंकि उन्हें शाश्वत आत्मा की धुन रहती है। वस्तुत: द्रव्यलिंगी साधु के चार प्रकार हैं - १. मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी - जिनके भेदज्ञान और तत्त्वज्ञान के अभाव हो, अभिप्राय में परद्रव्य में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व की भूल हो, सच्चे वीतरागी सर्वज्ञ देव-गुरु-शास्त्र के विषय में तथा सात तत्त्वों में अन्यथा श्रद्धान होने रूप मिथ्यात्व हो, किन्तु बाह्य में मन्दकषाय के बल से मुनिपने का आचरण निर्दोष हो, शुक्ललेश्या हो तो वे मरकर नववें ग्रैवेयक तक जाते हैं। २. अविरत सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगी - पहले अज्ञानदशा में मन्दकषाय के जोर से मुनिपना ले लिया हो और फिर सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ हो; परन्तु अन्तर से तीन कषाय चौकड़ी के अभावस्वरूप संयम के योग्य पुरुषार्थ न चलता हो, उन्हें भी द्रव्यलिंगी कहा जाता है; ऐसे सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगी को केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबंधी चार, ऐसी सात प्रकृतियों का क्षय हो सकता है। ३. देशविरत सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगी- ध्रुव ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से अन्तर में दो कषाय-चौकड़ी के अभावस्वरूप शुद्धपरिणति हुई है; परन्तु बाह्य में मुनिपने की क्रिया निर्दोष पालन करने पर भी 39

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