Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 91
________________ १८० चलते फिरते सिद्धों से गुरु आत्मा में लीन रहते हैं; वे साधु भावलिंगी हैं। भावलिंगी मुनि के भाव इस प्रकार होते हैं कि “मैं परद्रव्य और परभावों से ममत्व को छोड़ता हूँ। मेरा निजभाव ममत्वरहित है, उसको अंगीकार कर मैं उसमें स्थित हूँ। अब मुझे आत्मा का ही अवलम्बन है, अन्य सभी को मैं छोड़ता हूँ।" जिनका आचरण मूलगुणों और उत्तरगुणों को उत्कृष्ट भावों से धारण करने का है, वे भावश्रमण हैं। उनका चिन्तन ऐसा होता है कि - "एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।। अर्थात् मेरा आत्मा ज्ञान-दर्शन लक्षणरूप शाश्वत और एक ही है। शेष भाव मुझसे बाह्य हैं; वे सब ही संयोग लक्षणस्वरूप हैं, परद्रव्य हैं।" वस्त्र धारण के संबंध में कहते हैं कि वस्त्र के मलिन हो जाने पर उसको धोने के लिए जल एवं साबुन आदि का आरम्भ करना पड़ता है और इस अवस्था में संयम का घात होना अवश्यम्भावी है। वस्त्र के नष्ट होने पर पुरुषों का मन व्याकुल हो जाता है, दूसरों से उसको प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी पड़ती है। इसलिए मुनिजन सदा पवित्र एवं रागभाव को दूर करने के लिए दिग्मण्डलरूप अविनश्वर वस्त्र का आश्रय लेते हैं। द्रव्य-भावलिंग में भावलिंग प्रधान हैं; क्योंकि भावलिंग साक्षात् मोक्ष का कारण है। बाह्य द्रव्यलिंग होने पर भी यदि भावलिंग न हो तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती और अन्तरंग भावलिंग हो, किन्तु द्रव्यलिंग न हो - ऐसा तीन काल में कभी होता ही नहीं है। ___आगम में स्पष्ट लिखा है कि - ‘भावसमणा हु समणा' - जो भाव-श्रमण हैं, वे ही श्रमण हैं, अन्य नहीं। 'भावलिंग ही प्रथमलिंग है, इसलिए हे भव्य जीव! तू द्रव्यलिंग को परमार्थभूत मत जान! गुण-दोष का कारणभूत भाव ही है - ऐसा जिन भगवान कहते हैं।' 'भाव ही स्वर्ग-मोक्ष का कारण है, भाव से रहित श्रमण पापस्वरूप मुनिराज के भेद-प्रभेद १८१ है, तिर्यंचगति का स्थानक है तथा कर्ममल से मलिन चित्तवाला है।' 'जो भावश्रमण है, वे परम्परा से कल्याण स्वरूप हैं - तथा जो द्रव्यश्रमण हैं, वे मनुष्य, देव आदि योनियों में दुःख पाते हैं।' 'सम्यग्दर्शनरहित मुनिदीक्षा धारण करना व्यर्थ है, इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती।" 'जो जीव परब्रह्म को नहीं जानता है और जो सम्यग्दर्शन से रहित है, वह न तो गृहस्थ अवस्था में है और न साधु अवस्था में है। केवल बाह्य लिंग को धारण कर क्या कर सकते हैं? कर्मों का नाश तो सम्यक्त्वसहित चारित्ररूप जिनलिंग धारण करने से ही होता है।१० 'जो सम्यग्दर्शनसहित निर्ग्रन्थरूप है, वही निर्ग्रन्थ है।१९ 'आप्त, आगम के द्वारा निरूपित पदार्थों के स्वरूप में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है तथा जिसका चित्त मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। भले प्रकार ज्ञान और श्रद्धान कर जो यमसहित है, उसे संयत कहते हैं। संयत शब्द की इस प्रकार व्युत्पत्ति करने से यह जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्यसंयम का प्रकरण नहीं है।१२” द्रव्यलिंग की गौणता दर्शानेवाले आगम प्रमाण 'बहुत प्रकार के मुनिलिंगों अथवा गृहीलिंगों को ग्रहण करके मूढ़ अज्ञानीजन यह कहते हैं कि 'यह लिंग मोक्षमार्ग है', परन्तु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि अरहन्तदेव देह के प्रति निर्ममत्व वर्तते हुए लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं; अतः मुनियों और गृहस्थों के लिंग मोक्षमार्ग नहीं हैं।१३' जो संयमरहित जिनलिंग धारण करता है, वह सब निष्फल है।१४ 'जैसी बोधि-समाधि जिनमार्ग में कही है, वैसी बोधि-समाधि द्रव्यलिंगी साधु नहीं पाता है।५' ___'लिंग शरीर के आश्रित है और शरीर ही आत्मा का संसार है, इसलिए जिनको लिंग का ही आग्रह है, वे संसार से नहीं छूटते । १६' शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीरस्वरूप है, इसलिए आत्मा 91

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