Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 37
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु मूलाचार के अनुसार- 'सूर्योदय के तीन घड़ी बाद से लेकर सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक का काल आहार का काल है।' ७२ तात्पर्य यह है कि गाँव, नगर आदि में सामान्यतया जिस काल में शुद्ध आहार तैयार होता है तथा ऋतु परिवर्तन के अनुसार यत्किंचित् परिवर्तित काल में साधु आहारचर्या के लिए गमन करते हैं । भगवती आराधना का विजयोदया टीका में तीन प्रकार के आहारकाल के विषय में विचार किया गया है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म का प्रथम साधन शरीर ही है, जिसे भोजन-पान शयनादि के द्वारा धर्म साधन के अनुकूल रखना आवश्यक है, किन्तु इस दिशा में उतनी ही प्रवृत्ति होती है, जिससे इन्द्रियाँ अपने अधीन बनी रहें। इसीकारण मुनि का आहार शुभभाव है। रयणसार के अनुसार 'जो साधु ज्ञान और संयम की वृद्धि के लिए तथा ध्यान और अध्ययन के निमित्त यथालाभ भोजन ग्रहण करता है, वह साधु मोक्षमार्ग में रत है।' श्रमण आहारचर्या के लिए निकलने पर अपना आगमन सूचित करने के लिए शब्दादि के संकेत नहीं करते, अपितु बिजली की चमक के सदृश अपना शरीरमात्र दिखा देना ही पर्याप्त समझते हैं। यदि श्रावक पड़गाहन करे तथा संकल्पानुसार विधि मिल जाय तो श्रावकों द्वारा प्रार्थना करने पर वहीं खड़े होते हैं, जहाँ से दूसरे साधु भी खड़े होकर भोजन प्राप्त करते हैं। जिस आहारदाता में पात्र के प्रति भक्ति, श्रद्धा एवं सन्तोष, निर्लोभता, क्षमा आदि गुण होते हैं, वह आहारदाता विशेष पुण्यार्जन करता है। मुनि का आहार नवकोटि से शुद्ध हो, छयालीस दोषों से रहित हो, संयोजना से हीन हो, प्रमाण सहित हो, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया हो, अंगार और धूमदोषरहित हो, मोक्षयात्रा के लिए साधनमात्र हो तथा मल दोषों से रहित हो - साधु ऐसा अनुदिष्ट आहार ग्रहण करते हैं। ऐसे 37 दिगम्बर मुनि की आहार चर्या, नग्नता द्रव्यलिंग के भेद निर्दोष आहार को ही उद्धिष्ट रहित आहार कहते हैं। इससे हटकर उद्दिष्ट शब्द का अन्य कुछ अर्थ नहीं है। मुनि प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान रूप अन्तरंग तप तथा अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और कायक्लेशरूप इसप्रकार बारह प्रकार के बहिरंग तप आदरते हैं। कभी-कभी ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं। मुनियों को छठवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता। बार-बार सातवें गुणस्थान की निर्विकल्प दशा होती ही रहती है। इसीकारण वे रात्रि के अन्तिम प्रहर में जब शयन करते, उस समय भी वे अन्तुर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं। 193 अन्तर-बाह्य चारित्र का पालन करनेवाले मुनिराज हम सबके लिए भगवान अरहंत-सिद्ध के समान ही वन्दन-पूजन करने योग्य होते हैं। हम प्रतिदिन देव-शास्त्र-गुरु पूजा में उनकी पूजा भक्तिभाव से करते भी हैं। दिगम्बर मुनिराज के पास संयम की साधन पिच्छी और शुद्धि का साधन कमण्डल के सिवाय अन्य कोई परिग्रह नहीं होता। वे घोर उपसर्ग और परिषहों में भी अन्तर-बाह्य चारित्र से विचलित नहीं होते । अनन्तानुबंधी आदि तीनकषाय चौकड़ी के अभाव में अन्तरंग शुद्धिपूर्वक अट्ठाईस मूलगुण एवं तेरह प्रकार के चारित्र का पालन मुनिराज के बाह्य लक्षण हैं। मुनिराज का यह स्वरूप क्षेत्र एवं काल से प्रभावित नहीं होता । विदेह क्षेत्र में एवं भरत क्षेत्र में तथा चतुर्थ काल में एवं पंचम काल में सदा एक जैसा ही रहता है। इसमें क्षेत्र काल के अनुसार शिथिलता नहीं होती, क्योंकि क्षेत्र के कारण धर्म का स्वरूप नहीं बदलता । जैसे आग तो सर्वत्र एवं सदा उष्ण ही रहती है; उसीप्रकार धर्म तो सर्वत्र वीतरागरूप ही होता है। इसकारण मुनिधर्म का देश-काल की परिस्थितियों में भी समझौता संभव नहीं है।

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