Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ बारह तप १२० चलते फिरते सिद्धों से गुरु “संवेग और निर्वेद से युक्त अपराध करनेवाले साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करते हैं, वह प्रायश्चित्त नाम का तप कर्म है।" २. विनयतपः- रत्नत्रय को धारण करनेवाले पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति धारण करना व्यवहार से विनय तप है।१७ कषायों और इन्द्रियों का उपशमन करना निश्चय विनय तप है ।१८ मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह विनय दो प्रकार की है - निश्चय विनय व व्यवहार विनय । अपने रत्नत्रयरूप गुण की विनय निश्चय विनय है और रत्नत्रयधारी साधुओं की विनय व्यवहार या उपचार विनय है - ये दोनों ही अत्यन्त प्रयोजनीय हैं। ज्ञानप्राप्ति में गुरुविनय अत्यन्त प्रधान है। साधु, आर्यिका आदि चतुर्विध संघ में परस्पर में विनय करने सम्बन्धी जो नियम हैं, उन्हें पालन करना व्यवहार विनय तप है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों की विनय करना विनय मिथ्यात्व है।१९ मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादि में तथा उनके साधक गुरु आदि में अपनी योग्य रीति से सत्कार, आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय-सम्पन्नता भावना है।२० ___“मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसे विनय कहते हैं। तथा इस प्रयत्न में शक्ति को छिपाकर शक्ति के अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है।" “विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है और विनय से आचार्य व सर्वसंघ की सेवा होती है। आचार और प्रायश्चित्त के गुणों का प्रगट होना, आत्मशुद्धि, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, गुरुसेवा, सबको सुखी करना - ये सब विनय के गुण हैं।२२” १२१ विनय तप समझने में सावधानी की विशेष जरूरत इस कारण है कि - विनय सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ा पुण्य एवं सबसे बड़ा पाप भी है। विनय तप के रूप में सबसे बड़ा धर्म, सोलहकारण भावनाओं में विनयसम्पन्नता सबसे बड़ा पुण्य और विनय मिथ्यात्व के रूप में अनन्त संसार का कारण होने से सबसे बड़ा पाप है। इस कारण विनय के प्रयोग में सजग रहना आवश्यक है। ३. वैयावृत्त्य तप :- जो निर्यापक साधु वांछा रहित होकर अपनी चेष्टा से, उपदेश से और यथायोग्य वस्तु से उपसर्ग पीड़ित तथा जरारोगादि से क्षीणकाय यतियों का उपकार करता है; उसके वैयावृत्य नामक व्यवहार तप होता है।२३ प्रवचनसार गाथा २५२ में कहा है कि रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा श्रम से आक्रान्त श्रमण को देखकर निर्यापक साधु द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्यादि करना व्यवहार वैयाव्रततप है।२४ ___गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, दुर्बलसाधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञता सहित मुनियों पर आपत्ति के प्रसंग में वैयावृत्ति करना वैयाव्रत तप है।२५ उपर्युक्त सम्पूर्ण आगम उद्धरणों से सिद्ध है कि शुभोपयोगी मुनिराज किसी भी प्रकार के प्रत्युपकार की अपेक्षा बिना रोगादि से पीड़ित मुनिराज की सेवा आदि करके उन्हें धर्म में स्थिर चित्त रखने हेतु जो वैयावृत्य आदि करते/कराते हैं वह वैयाव्रत तप हैं। चरणानुयोग के कथनानुसार वैयावृत्त्य नामक तप मुख्यता से बीमार या समाधिमरण धारण करने वाले उन मुनियों को होता है, जिनको निरन्तर दूसरों से सेवा न कराने की भावना रहती है। वे नहीं चाहते कि उनकी कोई सेवा करे। यही उनका वैयावृत्त्य तप है। वैयावृत्ति कराने की इच्छा के निरोध बिना उसे तप संज्ञा कैसे मिल सकती है? 61

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