Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 73
________________ बारह भावना : सामान्य विवेचन १४५ १४४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु जब ब्रह्मचारी बाबा को यह समझ में आया तो वे फिर रोने लगे। हमने पूछा-“अब क्यों रोते हो?" तो वे बोले - महाराजजी! हम अब इसलिए रोते हैं कि - "हमने अब तक इन पार्टियों के चक्कर में अपना मनुष्यभव खराब कर लिया है। सत्य समझने की कोशिश ही नहीं की - अब मरघट जाने का समय आया तब आपकी बात कुछ-कुछ समझ में आई। सो अब समझने का समय नहीं रहा, शक्ति नहीं रही। अब क्या करें?" आचार्य श्री ने कहा कि - "हमने बाबाजी को आश्वासन दिया और कहा कि घबराओ मत 'जब जाग जाओ तभी है सबेरा' अतः भत को भूल जाओ, वर्तमान को संभालो भविष्य स्वयं संभल जायेगा।" ब्रह्मचारी धर्मचन्द का उदाहरण देकर जब आचार्य श्री ने श्रोताओं को जाग्रत होने की प्रेरणा दी तो अधिकांश श्रोताओं ने संकल्प किया कि “अब जो भी स्वाध्याय करेंगे, उसे भलीभाँति समझ-समझकर ही करेंगे तथा तद्नुसार ही आचरण भी करेंगे। सुनेंगे सबकी; पर करेंगे वही जो आगम सम्मत होगा, वीतरागता पोषक एवं वैराग्यवर्द्धक होगा।" आचार्यश्री ने कहा - "बाजार में तो असली-नकली सब तरह के सिक्के चलते हैं, वहाँ तो हम इतना विवेक रखते हैं कि बाजार में चलें तो चलने दो, बाजार में चलते नकली सिक्कों को रोकना हमारा काम नहीं, वह जिम्मेदारी सरकार की है, हमें तो इतना ध्यान रखना है कि - वे नकली सिक्के हमारी जेब में नहीं आना चाहिए। यदि हमारी जेब में पकड़े जायेंगे तो हमें जेल होगी। इसीतरह जिनवाणी के नाम पर यदि कोई जनवाणी चलाता है तो चलने दो, वीतराग धर्म के नाम पर पाप-पुण्य रूप राग चलाना चाहता है तो चलाने दो, पर ध्यान रखो वह रागवर्द्धक पापपुण्य का सिक्का तुम्हारी श्रद्धारूपी जेब में नहीं आना चाहिए। अन्यथा भव्य होने पर भी मारीचि की भाँति एक कोड़ाकोड़ी सागर तक संसार में जन्म-मरण करना होगा। हाँ, तो सुनो! __ कविवर भागचन्दजी ने एक ही छन्द में बारह भावनाओं को कितने अच्छे ढंग से लिखा है। वे कहते हैं - जग है अनित्य तामैं सरन न वस्तु कोय । तातै दुःखरासि भववास कौं निहारिए ।। एक चित्त चिह्न सदा भिन्न परद्रव्यनि तें। अशुचिः शरीर में न आपाबुद्धि धारिए ।। रागादिकभाव करै कर्म को बढ़ावै तातें । संवर स्वरूप होय कर्मबन्ध डारिए ।। तीन लोक माँहि जिन धर्म एक दुर्लभ है। तातें जिन धर्म१२ को न छिनहू विसारिए ।।१२ उपर्युक्त छन्द को मधुर कंठ से बोलते हुए आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में कहा – “देखो अध्यात्मरसिक कवि भागचंदजी ने १२ भावनाओं को एक ही छन्द में संक्षेप में कैसे सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि__“संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का तथा वस्तु स्वरूप को पुनः-पुनः चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की वृद्धि के अर्थ बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का कथन जिनागम में प्रसिद्ध है, इन्हें वैराग्यमयी बारह भावनाएँ कहते हैं; इनके भाने से व्यक्ति शरीर व भोगों से उदासीन होकर साम्यभाव में स्थिति पा सकता है।१४” “शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । अर्थात् शरीरादिक के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है ।१५" ___ “कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् पूर्णरूप से हृदयङ्गम हुए श्रुतज्ञान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षा है।१६ “अपना और शरीरादि का जहाँ-जैसा स्वभाव है, वैसा पहिचानकर, भ्रम को मिटाकर, भला जानकर, राग नहीं करना और बुरा जानकर द्वेष नहीं करने रूप सच्ची उदासीनता के लिए यथार्थ अनित्यत्वादिक का चिन्तवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है ।१७" 73

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