Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 75
________________ १४८ चलते फिरते सिद्धों से गुरु दूसरी बात यह भी है कि इन बारह भावनाओं का वर्णन संवर के कारणों के अन्तर्गत आया है और मिथ्यादृष्टि को संवर होता नहीं है; अतः उसके सच्ची बारह भावनाएँ नहीं होती हैं। हाँ, वह वस्तुस्वरूप के निर्णय पूर्वक इनके चिन्तन से अपने चित्त में वैराग्यमय कोमल परिणामों के द्वारा आत्मानुभव का पुरुषार्थ करे तो उसके चिन्तन को निष्फल नहीं कहा जा सकता। ___ "बारह भावनाओं के चिन्तन में भेदविज्ञान भी निहित है। बारह भावनाओं के क्रम में भेदविज्ञान का क्रमिक विकास भी दृष्टिगोचर होता है। यदि आरम्भ की छह भावनाएँ परसंयोगों की अस्थिरता, पृथक्ता एवं मलिनता का सन्देश देकर अनादिकालीन परोन्मुखता समाप्त कर, अन्तरोन्मुख होने के लिए प्रेरित करती हैं तो सातवीं आस्रवभावना संयोगाधीन दृष्टि से उत्पन्न होनेवाली संयोगी विकारों से विरक्ति उत्पन्न करती हैं तथा संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म भावनाएँ उस निज शुद्धात्मतत्व के प्रति समर्पित होने का मार्ग प्रशस्त करती हैं, जिसके आश्रय से रत्नत्रयरूप संवरादि निर्मल पर्यायें उत्पन्न होती हैं।२२” ___ अनुप्रेक्षा के पहले सम्यग्दर्शन होना जरूरी है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सच्ची अनुप्रेक्षा नहीं हो सकती । सम्यग्दृष्टि जीव को ही आत्मस्वभाव के अनुभवपूर्वक वस्तुस्वरूप का यथार्थ निर्णय होता है; इसलिए शरीरादि की अनित्यता, अशरणता अथवा अपवित्रता का चिन्तन उसे समताभाव का उत्पादक होता है एवं आत्मस्वभाव की दृष्टिपूर्वक वैराग्यभावमय वीतरागपरिणति की अभिवृद्धि होती है। ___ आचार्य पूज्यपाद ने तो यहाँ तक कहा है - "तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।" अज्ञानी जीव अनुप्रेक्षा के सम्बन्ध में यह भूल करता है कि वह देह की एवं संयोगों की अनित्यता आदि के चिन्तवन से शरीरादिक को बुरा जान, हितकारी न जानकर उनसे उदास होने को अनुप्रेक्षा कहता है। सो यह तो जैसे कोई मित्र था तब उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण बारह भावना : सामान्य विवेचन १४९ देखकर उदासीन हुआ; उसीप्रकार पहले शरीरादिक से राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोककर उदासीन हुआ, परन्तु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है।२४ अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सर्वथा शुभभावात्मक ही नहीं है। निश्चयनय से अनुप्रेक्षा शुद्धोपयोग और व्यवहारनय से शुभोपयोगात्मक है। रयणसार गाथा ६४ में ऐसा कहा है - "बारह अनुप्रेक्षायें बन्धमोक्ष के कारण स्वरूप हैं।" तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय से अनुप्रेक्षा शुभभावात्मक होने से पुण्यबन्ध की कारण है तथा निश्चयनय से अनुप्रेक्षा शुद्धभावस्वरूप होने से मोक्ष की कारण है। समयसार की ३२० गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन ने शुद्धोपयोग को भी भावनारूप स्वीकार किया है। अनुप्रेक्षा के इन बारह भेदों में यह रहस्य निहित है कि संसारी जीव के मुख्यरूप से स्त्री-पुत्र, मकान-जायदाद, रुपया-पैसा और शरीर आदि का ही संयोग है; इनमें सर्वाधिक नजदीक का संयोगी पदार्थ शरीर है। अनित्यभावना में इनकी अनित्यता, अशरणभावना में इनकी अशरणता तथा संसारभावना में इनकी दुःखरूपता व निःसारता का चिन्तन किया जाता है। स्वयं में एकत्व और संयोगों से भिन्नत्व का विचार क्रमशः एकत्व और अन्यत्वभावना में होता है। संयोगों (शरीर आदि) की मलिनता, अपवित्रता का चिन्तन ही अशुचिभावना है। उक्त भावनाओं के चिन्तन का विषय यद्यपि संयोग ही है; तथापि चिन्तन की धारा का स्वरूप इस प्रकार है के संयोगों से विरक्ति हो, अनुरक्ति नहीं। अतः ये छह भावनाएँ मुख्यरूप से वैराग्योत्पादक हैं। ___आस्रव, संवर और निर्जरा तो स्पष्टरूप से तत्त्वों के नाम हैं; अतः इनका चिन्तन सहज ही तत्त्वपरक होता है। बोधिदुर्लभ और धर्मभावना में भी रत्नत्रयादि धर्मों की चर्चा होने से इनका चिन्तन भी तत्त्वपरक ही है। लोकभावना में लोक की रचना सम्बन्धी विस्तार को गौण करके यदि

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