Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु १०. लोकानुप्रेक्षा - यद्यपि लोकभावना की विषयवस्तु बहुत विस्तृत है, तथापि ज्ञानियों ने उसका प्रतिपादन एक-एक छन्द में भी साररूप में ऐसे अतिसंक्षेप में किया है; फिर भी लोकभावना की सम्पूर्ण भावना को उसमें समाहित कर लिया है। १६४ इस दृष्टि से कविवर दौलतरामजी का निम्न पद्य दृष्टव्य है - किनहू न करौ न धेरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को। सो लोकमांहि विन समता, दुःख सहै जीव नित भ्रमता ।। छहद्रव्यों के समुदायरूप इस लोक को न तो किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है। इस लोक में यह आत्मा अनादिकाल से समताभाव के बिना भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख सह रहा है। कविवर भूधरदासजी कहते हैं कि - चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादि तैं, भरमत है बिन ज्ञान ।। इस पुरुषाकार चौदह राजू ऊँचे लोक में यह जीव आत्मज्ञान बिना अनादिकाल से ही भ्रमण कर रहा है। उपर्युक्त दोनों कवियों में तुलना करते हैं तो मात्र इतना अन्तर है कि एक में समता के बिना जीव को दुःखी बताया है और दूसरे पद्य में सम्यग्ज्ञान के बिना दुःखी बताया है। लोकभावना में छहद्रव्यों के समुदायरूप लोक की बात एवं लोक की भौगोलिक स्थिति चिन्तन का विषय बनती है। इस भावना में मूल बात लोक के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं, बल्कि सम्यग्ज्ञान और समताभाव बिना जीव के अनादि से परिभ्रमण की है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान और समताभाव की रुचि जागृत करना ही इन भावनाओं चिन्तन का मूल प्रयोजन है । यह बात कविवर मंगतरायकृत लोकभावना में अधिक स्पष्ट हुई है, जो इसप्रकार है - 83 बारह भावना विशेष विवेचन १६५ "लोक अलोक अकाश माँहि थिर निराधार जानो । पुरुषरूप कर कटि भये षट्द्रव्यन सों मानो ।। इसका कोई न करता हरता अमिट अनादी है। जीव रु पुद्गल नाचे यामें कर्म उपाधी है । पाप-पुण्य सों जीव जगत में नित सुख-दुख भरता । अपनी करनी आप भरै शिर औरन के धरता ।। मोहकर्म को नाश मेटकर सब जग की आशा । निजपद में थिर होय लोक के शीश करो वासा ।। अलोकाकाश में यह षट्द्रव्यमयी लोक निराधार (स्वयं के आधार पर) स्थित है और कमर पर हाथ रखे पुरुष के आकार का है। इस लोक का कोई भी कर्ता हर्त्ता नहीं है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त अमिट है। इस लोक में कर्म की उपाधि के कारण जीव और पुद्गल ही नृत्य कर रहे हैं, पाप-पुण्य के वश जीव निरन्तर दुःख-सुख भोग रहा है। यद्यपि यह जीव अपनी करनी का फल स्वयं ही भोगता है; तथापि उसे दूसरों के शिर मढ़ता रहता है। यह वृत्ति ही इसके दुःखों का, परिभ्रमण का मूल कारण है। अतः हे भव्यप्राणियों! यदि अपना हित चाहते हो तो सम्पूर्ण जगत की सभी आशाओं को मेटकर और मोहकर्म का नाश करके निज पद में स्थिर हो जाओ। यदि ऐसा कर सके तो तुम्हारा आवास लोक के शिखर पर होगा। तात्पर्य यह है कि तुम्हें सिद्धपद की प्राप्ति होगी; क्योंकि सिद्ध भगवान ही लोकशिखर पर विद्यमान सिद्धशिला पर विराजते हैं।" लोकभावना की मूल भावना पण्डित जयचंदजी छाबड़ा के शब्दों में इसप्रकार है - लोकस्वरूप विचारिकै आतमरूप निहारि । परमारथ व्यवहारगुणि मिथ्याभाव निहारि ।। हे आत्मन् ! निश्चय - व्यवहार को अच्छी तरह समझकर मिथ्याभावों

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