Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ १६६ चलते फिरते सिद्धों से गुरु को दूर करो। छहद्रव्यमयी लोक के स्वरूप को भलीभांति विचार कर स्वयं को देखो, आत्मा का अनुभव करो। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं - अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के आकारादिक का वर्णन करके, उसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना, लोकानुप्रेक्षा है। इसप्रकार लोकस्वरूप विचारनेवाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। लोकभावना के व्यवहार एवं निश्चयनय का कथन करते हुए स्वामी कार्तिकेय कहते हैं कि - एवं लोयसहावं, जो झायदि उवसमेक्कसब्भाओ। सो खविय कम्मपुंजं, तस्सेव सिहामणी होदि ।। अर्थात् जो पुरुष लोक के स्वभाव को जानकर, उपशमभाव से परिणत होकर एकभाव अपनी आत्मा को ध्याता है, वह कर्मसमूह का नाश करता है और लोक का शिखामणि होता है अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करता है। ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - रत्नत्रयरूप बोधि की दुर्लभता एवं अदुर्लभता का विचार करके, उस उपाय के प्रति प्रवर्तित होना बोधिदुर्लभ भावना है। जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय की चिन्ता करने को अत्यन्तदुर्लभ बोधिभावना कहते हैं, क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान का पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य अर्थात् निज आत्मा के स्वभाव से उत्पन्न होता है, इसलिए सुलभ है, उपादेय है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने कहा भी है - बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं।। अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि तो आत्मा का स्वभावभाव है; अत: निश्चय से दुर्लभ नहीं है। एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इसप्रकार स्थावर बारह भावना : विशेष विवेचन १६७ जीवों से यह सम्पूर्ण लोक भरा हुआ है। जिसप्रकार बालू के समुद्र में गिरी हुई वज्रसिकता की कणिका का मिलना दुर्लभ है; उसीप्रकार स्थावर जीवों से भरे हुए भवसागर में त्रसपर्याय का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। त्रसपर्याय में विकलत्रयों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रियों) की बहुलता है। जिसप्रकार गुणों के समूह में कृतज्ञता का मिलना अतिदुर्लभ है; उसीप्रकार त्रसपर्याय में पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। पंचेन्द्रिय पर्याय में भी पशु, मृग, पक्षी और सर्पादि की ही बहुलता है। अत: जिसप्रकार चौराहे पर पड़ी हुई खोई हुई रत्नराशि का मिल जाना कठिन है; उसीप्रकार मनुष्यपर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। ____ यदि एक बार मनुष्यपर्याय मिल भी गई तो फिर उसका दुबारा मिलना तो इतना कठिन है कि जितना जले हुए वृक्ष के परमाणुओं का पुन: उस वृक्ष पर्यायरूपी होना कठिन होता है। कदाचित् इसकी प्राप्ति पुनः हो भी जावे तो भी उत्तम देश, उत्तम कुल, स्वस्थ इन्द्रियाँ और स्वस्थ शरीर की प्राप्ति उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ समझना चाहिए। इसप्रकार अति कठिनता से प्राप्त धर्म को पाकर भी विषयसुख में रंजायमान होना भस्म के लिए चन्दन जला देने के समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सहज समाधि का, सुख से मरणरूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है - ऐसा विचार करना ही बोधिदुर्लभ भावना है। ___ यदि काकतालीयन्याय से इन मनुष्यगति, आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी प्राप्ति हो जाए तो भी इनके द्वारा प्राप्त करनेरूप जो ज्ञान है, उसके फलभूत जो शुद्धात्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परम-समाधि है, वह दुर्लभ है। इसलिए उसकी ही निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले अप्राप्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का प्राप्त 84

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