Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 72
________________ श्रोताओं की जिज्ञासा को देखते हुए आचार्यश्री ने आज का प्रवचन बारह भावनाओं पर करने का मन बनाया। प्रवचन प्रारंभ करते हुए आचार्यश्री ने कहा - "वैराग्य जननी ये बारह भावनायें साधुओं के उत्तरगुणों के रूप में तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, मुनिराज तो प्रतिदिन इनके माध्यम से संसार, शरीर और भोगों की अनित्यता, अशरणता एवं असारता का चिन्तन कर अपने वैराग्य का पोषण करते हुए आत्म तत्त्व की नित्यता, शरणभूतता और सारभूतपने के चिन्तन से स्वरूप में स्थिर होने का पुरुषार्थ करते ही हैं, श्रावकों के लिए भी ये भावनायें संसार, शरीर और भोगों से उदास कराने में, वैराग्य बढ़ाने में निमित्त बनती हैं। जिसतरह अग्नि को प्रज्वलित करने में पवन निमित्त बनती है, उसी तरह बारह भावनाओं का चिन्तन-मनन वैराग्य के बढ़ाने में निमित्त बनता है। छहढाला की पाँचवीं ढाल का स्मरण दिलाते हुए आचार्यश्री ने कहा - "देखो, कवि दौलतराम कहते हैं - इन चिन्तत समसुख जागे, जिमि ज्वलन पवन के लागे। इन बारह भावनाओं का चिन्तन करने से ऐसा समता सुख जागृत हो जाता है जैसे हवा लगने से अग्नि दहकने लगती है।" यहाँ कवि तो यह कह रहे हैं कि बारह भावनाओं के चिन्तन से सुख प्रगट होता है और अज्ञानी की हालत यह है कि इन्हें पढ़ते ही वह रोने लगता है। __ आचार्यश्री ने आगे कहा - एक वयोवृद्ध ब्र. धर्मचन्द थे। वे जब भी १२ भावनाओं का पाठ करते तो मुश्किल से प्रारंभ की दो-तीन भावनायें पढ़ते ही आँसू बहाने लगते, भावुक हो उठते, गला रुंध जाता, आगे पढ ही नहीं पाते। बारह भावना : सामान्य विवेचन १४३ मैंने उन्हें ऐसा करते अनेक बार देखा - एक दिन मैंने उनसे पूछा - भाई! आप १२ भावना पढ़ते-पढ़ते रो पड़ते हो! ऐसा क्यों? ये बारह भावनायें तो आनन्द जननी हैं, वैराग्य वर्द्धनी हैं, इनमें रोने का क्या काम? __ वे बोले - "रोयें नहीं तो क्या करें। इन भावनाओं में तो साफ-साफ लिखा है कि - "मरना सबको एक दिन" और "मरतें न बचावे कोई" यह सोचते ही तो रोना आ जाता है। तब मैंने कहा - "इन्हीं बारह भावनाओं में यह भी तो लिखा है - "इन चिन्तन समसुख जागे, जिमि ज्वलन पवन के लागे” ये क्यों नहीं पढ़ते? और भी देखो - क्या-क्या लिखा है - पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - द्रव्यरूप कर सर्वथिर, पर्यय थिर है कौन? द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्ययनय करि गौण॥' वे बोले - "ये भावनायें तो निश्चय वालों की हैं और हम इनका अर्थ भी तो नहीं समझते । यह द्रव्य क्या है? पर्याय क्या है? और द्रव्यदृष्टि क्या है? स्वयं को कैसे देखें? हमने तो जिन्दगी भर वही 'राजा राणा' वाली बारह भावना ही पढ़ी है, उसे पढ़ते हैं तो रोना आ ही जाता है। क्या ऐसे रोने से कर्मों की निर्जरा नहीं होगी? ____ उन ब्रह्मचारी बाबा की बातें सुनकर उनकी अज्ञानता और भोलेपन पर हमें मन ही मन हँसी तो बहुत आई, साथ में उन पर करुणा भी आई। अतः हमने गंभीर होकर कहा - "भाई! तुम एक बार आचार्यों की लिखी बारह भावनाओं को पढ़ो! और देखो! ये भावनायें कैसी सुखद हैं, वैराग्यवर्द्धक हैं। रोना तो आर्तध्यान हैं ऐसे रोने से निर्जरा नहीं, पापासव होता है, जबकि १२ भावनाओं को समझ कर पढ़ने से कर्मों का संवर होता है। और हाँ, सुनो! तुम्हारी आयु अब अधिक नहीं है, पचत्तर तो पार कर ही चुके हो। अतः इस निश्चय-व्यवहार की पार्टियों के झमेले में न पड़ो। सत्य बात को समझने की कोशिश करो। क्या बारह भावना भी निश्चय व्यवहार वालों की अलग-अलग हैं। 72

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