Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ बारहतप मुनिधर्म के उत्तरगुणों में बारहतपों का महत्वपूर्ण स्थान है; और इच्छाओं के निरोध का नाम तप है। धवल ग्रन्थ में एक सूत्र आया है - 'इच्छा निरोधस्तपः' इच्छाओं के निरोध का नाम तप है तथा तप से कर्मों की निर्जरा होती है। तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र है - 'तपसाः निर्जरा च।' अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है। अन्य आचार्यों ने भी इसका समर्थन किया है, जिसकी चर्चा इसी अध्याय में यथा स्थान है। पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ३ पृष्ठ ७० पर जो चार प्रकार की इच्छाओं का प्रतिपादन किया है, उसका संक्षिप्त सार यह है कि - दुख का लक्षण आकुलता है और आकुलता इच्छा होने पर होती है। वह इच्छा चार प्रकार की है। पहली इच्छा - विषय ग्रहण की इच्छा - इस इच्छा-पाँचों इन्द्रियों के विषय ग्रहण की बात है। जैसे - वर्ण देखने की इच्छा, राग सुनने की इच्छा आदि। दूसरी इच्छा - कषाय भावों के अनुसार कार्य करने की होती है। जैसे - क्रोध से किसी को पीड़ा पहुँचाने की इच्छा, किसी का बुरा करने की इच्छा, मान से किसी को नीचा दिखाने की इच्छा आदि। तीसरी इच्छा - पापोदय से उत्पन्न इच्छा । जैसे रोग, पीड़ा, क्षुधा, तृषा आदि होने पर उन्हें दूर करने की इच्छा। चौथी इच्छा - बाह्य निमित्तों से होती है। इसमें उपर्युक्त तीनों इच्छाओं के अनुसार प्रवर्तन करने की इच्छा होती है। ये चारों ही इच्छायें दुःखद हैं। सम्यग्ज्ञान के बल पर इनका निरोध करना तप है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास से विषय-कषायों को दुःखद माने बिना इनका निरोध संभव नहीं है। ११७ अनादिकाल से अज्ञान अवस्था में ये प्राणी इन इच्छाओं के आधीन हुआ इनकी पूर्ति में परेशान रहा है। कभी पूर्व पुण्योदय से कोई एक इच्छा पूर्ण होती है तो अन्य अनेक इच्छायें उत्पन्न हो जाती हैं। अतः ज्ञानीजन तत्त्वज्ञान के सहारे इनका निरोध करने का जो प्रयत्न करते हैं, वही तप है। वह तप मूलतः दो प्रकार है। एक बाह्य तप, दूसरा अन्तरंग तप। ___ “बाह्य तप के छह भेद इस प्रकार हैं - (१) अनशन, (२) अवमौदर्य, (३)वृत्तिपरिसंख्यान, (४) रसपरित्याग, (५) विविक्त शय्यासन और (६) कायक्लेश।" अभ्यन्तर तप के छह भेद इस प्रकार हैं - (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) व्युत्सर्ग और (६) ध्यान ।१.२” "बाह्य-अभ्यन्तर सभी प्रकार के तपों में इच्छा का निरोध एवं निजस्वरूप में प्रवृत्ति अनिवार्य है। यदि किसी कार्य में इच्छा की अभिवृद्धि पायी जाए तो वह कृत्य तप संज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता। वास्तविकता तो यह है कि जब तक अपने परिपूर्ण स्वरूप की प्रतीति और उसमें प्रवृत्ति नहीं होगी, तबतक अवश्य ही इच्छाओं की उत्पत्ति होगी; अतः इच्छाओं के निरोध के लिए निज चैतन्यस्वभाव की परिपूर्णता का संवेदन होना अति आवश्यक है। जब मैं स्वभाव से ही परिपूर्ण शुद्ध चैतन्यसत्ता हूँ और मुझमें रंचमात्र की भी कमी नहीं है तो मैं पर की आशा क्यों करूँ? पर से मुझे कुछ प्राप्त हो - ऐसा भाव भी मुझमें नहीं है। “इस प्रकार स्वभाव सन्मुखता के चिन्तवन एवं अनुभवन से ही इच्छा का अभाव सम्भव है। बाह्य का अर्थ है बाहर से औरों को दिखायी दे कि यह तपस्वी है।" __ "बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से दूसरों को देखने में आनेवाले तप बाह्य तप हैं।" ___ "जिस तप की साधना शरीर से सम्बन्धित हो या जिसके द्वारा शरीर का मर्दन हो जाने से इन्द्रियों का दमन हो जाता है, वह बाह्य तप है।" 59

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