Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 65
________________ १२८ चलते फिरते सिद्धों से गुरु जो नीरस भोजन करता है, उसके रसपरित्याग तप निर्मल होता है। १७ (१) इन्द्रियों के मद का निग्रह करना, (२) निद्रा को जीतना, (३) स्वाध्याय आदि की सिद्धि, (४) प्राणी संयम तथा इन्द्रिय संयम की प्राप्ति, (५) असंयम का निरोध, तथा (६) रसना - इन्द्रिय की स्वादवृत्ति पर विजय की साधना इस व्रत का उद्देश्य है। "५८ ५. विविक्तशय्यासन तप:- “अप्रमादी मुनि द्वारा सोने, बैठने व ठहरने के लिए तिर्यंचनी, मनुष्यनी, विकारसहित देवियाँ और गृहस्थों के मकानों में वास करने का त्याग करना विविक्तशय्यासन तप है। १५९ (१) “सुखपूर्वक आत्मस्वरूप में लीन होना, (२) मन-वचनकाय की अशुभवृत्तियों को रोकना, (३) ब्रह्मचर्य का पालन, (४) ध्यान और स्वाध्याय में वृद्धिकरण (५) गमनागमन का अभाव होने से जीवों की रक्षा और (६) कष्टसहिष्णुता । इसके चिन्ह हैं । " ६. कायक्लेश तप :- "खड़े रहना, एक करवट से मृत की तरह सोना, वीरासन आदि से बैठना इत्यादि अनेक प्रकार से शास्त्रानुसार विवेकपूर्वक आतापनादि द्वारा शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है । ६१ आतापनयोग, वृक्ष के मूल में निवास, निरावरण शयन और नाना प्रकार के आसन इत्यादि करना कायक्लेश है।" "जो मुनि दुःसह उपसर्ग को जीतनेवाला है, आताप-शीत-वात पीड़ित होकर भी खेद को प्राप्त नहीं होता है। चित्त में क्षोभ अर्थात् क्लेश भी नहीं करता है, उस मुनि को कायक्लेश नामक तप होता है। १६२ कायक्लेश तप करने से यह लाभ है कि - (१) “देह के प्रति उपेक्षाभाव, (२) परीषह सहन करने की भावना, (३) शारीरिक सुख की अभिलाषा का अभाव, (४) शारीरिक कष्ट सहने की सहनशक्ति तथा (५) जिन मार्ग की प्रभावना होती है।"६३ शीत, वात, आतप, बहुत उपवास, क्षुधा तृषा आदि बाधाओं को सहने हेतु वीर आदि आसनों से ध्यान का अभ्यास किया जाता है; क्योंकि 65 बारह तप १२९ जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदि की बाधा का अभ्यास नहीं किया है और मरणान्तिक असाता आदि से खिन्न हुआ है, उसके ध्यान नहीं बन सकता। इस समय मुनि यह चिन्तन करने लगे कि जो परीषह, कष्ट आदि हैं, वे आत्मा में नहीं, अपितु शरीर में होते हैं और यह शरीर मेरा नहीं है । यही चिन्तवन कायक्लेश तप का आध्यात्मिक आधार है, इससे देहासक्ति और देहाभ्यास को कम करने का बल प्राप्त होता है। १६४ " कायक्लेश तप करने से अकस्मात् शारीरिक कष्ट आने पर सहनशीलता बनी रहती है। विषय-सुखों में आसक्ति नहीं होती है तथा धर्म की प्रभावना होती है, अतः कायक्लेश तप करना चाहिए। यदि कायक्लेश तप का अनुष्ठान नहीं किया जाता है तो ध्यानादि के समय में सुखशील व्यक्ति को द्वन्द्व (दुःख या आपत्ति) आने पर चित्त का समाधान नहीं हो सकेगा अर्थात् चित्त स्थिर नहीं रहेगा । १६५ आत्मसाधना करते हुए, यदि अनेक प्रकार के कष्ट आ पड़ें तो स्वरूपानुभव के बल से उनसे निरपेक्ष रहकर अनवरतरूप से आत्मसाधना करते रहना कायक्लेश तप है। कायक्लेश का मुख्य प्रयोजन शरीर को कष्ट देना न होकर शारीरिक कष्ट की उपेक्षावृत्ति एवं निजस्वरूप की अपेक्षावृत्ति है । “बाह्य तप श्रावकों और मुनियों को सन्मार्ग में तत्पर बनाये रखने के अद्वितीय साधन हैं। श्रमण को जितेन्द्रिय बनाने में बाह्य तप की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मन का संयमन तो सभी तपों में होता ही है। बाह्य तप पंचेन्द्रिय विषय-सुखों के प्रति उदासीनता लाने, कष्ट - सहिष्णु बनने, आलस्य दूर करने, शरीर से ममत्वभाव दूर करने तथा आत्मकल्याण में प्रवृत्त रहने में अत्यधिक सहयोगी बनते हैं। " “अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान और रसपरित्याग - इन चार तपों के द्वारा मुख्यरूप से रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त की जाती है। कायक्लेश और विविक्तशय्यासन ये दो तप स्पर्शन, घ्राण, चक्षु और

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