Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 43
________________ आचार्य के पंचाचार ८४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु रविवार छुट्टी का दिन था, बाजार भी बंद रहने के कारण अनेक पढ़े-लिखे प्रोफेसर, इंजीनियर, डाक्टर एवं प्रशासन सेवा में रहने वाले प्रतिभाशाली महानुभाव, प्रौढ़, छात्र-छात्रायें आदि नये श्रोता भी सम्यग्दर्शन का स्वरूप सुनने के लिए समय से पूर्व ही आ गये। अनेक जिज्ञासु श्रोता तो ऐसे थे जो जैन कुल में पैदा होने के कारण नाम मात्र के जैन थे। वे कुलक्रम से प्राप्त जैनधर्म के संस्कारोंवश प्रति रविवार को ही देवदर्शन करने आया करते थे। वे भी माता-पिता की प्रेरणा से आचार्यश्री के प्रवचन में बैठ गये थे। आचार्यश्री अनेक नये चेहरों को देखकर कुछ असमंजस में पड़ गये। उन्हें विकल्प आया कि “जब साठ हजार वर्ष तक छह खण्ड को जीतने के लिए निकले अभागे भरत चक्रवर्ती को तत्त्वज्ञान देने के लिए तीर्थंकर ऋषभदेव की दिव्यध्वनि अर्द्धरात्रि में खिर सकती है तो इन सौभाग्यशाली अभागे श्रोताओं को समझाना तो है ही, पर क्या/कैसे समझाया जाय ताकि इनमें चार माह तक नियमित प्रवचन सुनने की जिज्ञासा जागृत हो जाय। परन्तु, वे घोषित विषय को बदलना भी नहीं चाहते थे। अतः आचार्य श्री ने नये श्रोताओं को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम जीवों के अनादि-अनन्त अस्तित्व होने का तथा पुण्य-पाप की सत्ता का ज्ञान कराना बेहतर समझा। अत: उन्होंने श्रोताओं से कहा - "मैं एक प्रश्न पूछता हूँ सब ध्यान से सुनें और जिससे पूछा जाय वही उत्तर दें। एक बालक राजमहल में या किसी अरब पति सेठ के यहाँ पैदा होता है, जन्म से ही उसके मुँह में सोने की चम्मच होती है और चाँदी के पालने में झूलता है। नौकर-चाकर सब सेवा में खड़े रहते हैं, वहीं दूसरा बालक फुटपाथ पर पैदा होता है और लड़खड़ाते पैरों से चलने लायक होते ही उसके हाथ में भीख का कटोरा होता है, अभाव में जीवनभर जीता है और अनेक बीमारियों से घिरा तड़फ-तड़फ कर फुटपाथ पर ही दम तोड़ देता है। इन दोनों में यह अन्तर क्यों? सोचा कभी? दो सगे भाई एक ही माँ के उदर में पैदा होकर एक कलक्टर बन जाता और दूसरा चपरासी बन कर क्यों रह जाता है? सोचा कभी? अधिकांश श्रोता सोच में पड़ गये, पर एक बालक ने हाथ उठाया! आचार्यश्री ने उसे खड़ा किया और उत्तर देने को कहा। बालक ने कहा - "जिस बालक ने अपने पिछले जन्म में जैसा पुण्य-पाप कमाया, उसके अनुसार ही उसे फल मिला।" उत्तर सुन कर आचार्यश्री प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा - "हम सबकी परिस्थितियाँ भी एक जैसी कहाँ हैं? यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सब किसी न किसी मनःस्थिति और आर्थिक परिस्थिति से जूझ रहे हैं। अतः अब जो इन दुःखों से छुटकारा पाने की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है, वह विषय चलेगा, उसे ध्यान से सुनें और तुम्हें आनंद आये तो अगले प्रवचनों में अपने मित्रों और परिवार को भी साथ अवश्य लायें। ___ हाँ, तो सुनो! जिनागम में सम्यग्दर्शन के चार लक्षण कहे हैं - १. तत्त्वार्थ श्रद्धान अर्थात् साततत्त्वों के यथार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन। २. पर और पर्याय से प्रथक् आत्म-श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन । ३. शुद्धात्मानुभूति अर्थात् अभेद, अखण्ड एक चिन्मात्र ज्योति स्वरूप कारण परमात्मा की अनुभूतिरूप सम्यग्दर्शन । ४. तीन मूढ़ता रहित सच्चे देव-गुरु-शास्त्र का यथार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ।१२ यद्यपि ये जो चार लक्षण कहे, उनमें सच्ची दृष्टि से एक लक्षण भी ग्रहण करने पर चारों लक्षणों का ग्रहण हो जाता है, तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न-भिन्न विचार कर अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। १. 'तत्त्वार्थश्रद्धान'१३ लक्षण का प्रयोजन तो यह है कि - यदि इन सातों तत्त्वों को पहचान लें तो वस्तु के यथार्थ स्वरूप का व अपने हित 43

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