Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु जो पुरुष सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य से वर्द्धमान हैं तथा इस पंचमकाल के मलिन पाप (गृहीत मिथ्यात्व) से रहित हैं, वे सभी अल्पकाल में केवलज्ञानी होते हैं।६ " ८२ आचार्य समन्तभद्र श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते हैं - " न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।। तीन काल और तीन लोक में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई भव्य जीवों का कल्याण करनेवाला नहीं है तथा तीन काल और तीन लोकों में मिथ्यात्व के समान अन्य कोई अकल्याण करनेवाला नहीं है। " और भी सुनो आचार्य सकलकीर्ति कहते हैं कि - "मिथ्यात्वरूपी विष से दूषित हुए ज्ञान और चारित्र कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों, फिर भी उनसे मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती; इसलिए कहना चाहिए कि बिना सम्यग्दर्शन के ज्ञान अज्ञान है, चारित्र मिथ्याचारित्र है और समस्त तप कुतप है। जिस प्रकार बिना बीज के किसी भी खेत में कभी फल उत्पन्न नहीं हो सकते, उसी प्रकार बिना सम्यग्दर्शन के चारित्र नहीं होता और बिना रत्नत्रय के कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । " “जिन जीवों ने मुक्ति प्राप्त करानेवाले सम्यग्दर्शन को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया; वे ही धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शूरवीर हैं, पण्डित हैं । तात्पर्य यह है कि सभी गुण सम्यग्दर्शन से ही शोभा पाते हैं। अतः हमें निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए। स्वप्न में भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे सम्यग्दर्शन में मलिनता उत्पन्न हो ।” " अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो आज तक कोई सिद्ध हुआ है और न भविष्य में होगा । " ज्ञानी को सम्यग्दर्शनसहित नरक में रहना पड़े तो भी वह उसे अच्छा मानता है, परन्तु सम्यग्दर्शन के बिना स्वर्ग निवास को भी भला नहीं मानता । 42 आचार्य के पंचाचार इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव नरक में से निकलकर, सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से समस्त पूर्वोपार्जित अशुभकर्मों का नाश करके, तीर्थंकर तक हो सकता है, परन्तु बिना सम्यग्दर्शन, स्वर्ग के देव आर्त्तध्यान करते हैं और मिथ्यात्व के कारण स्वर्ग से आकर स्थावरों में उत्पन्न हो जाते हैं। जो पुरुष सम्यग्दर्शन से सुशोभित हैं, वे अव्रती होने पर भी नरकगति, तिर्यंचगति, निन्दित कुल, स्त्री पर्याय, नपुंसक पर्याय आदि में उत्पन्न नहीं होते। वे धर्मात्मा विकल या अंग-भंग शरीर धारण नहीं करते। उनका जन्म नहीं होता, वे अल्पायु और दरिद्री नहीं होते, धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थ से रहित नहीं होते । शुभभावों से रहित नहीं होते। वे रोगी व पापी भी नहीं होते और मूर्ख नहीं होते । सम्यग्दृष्टि पुरुष ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर देवों में पैदा नहीं होते। प्रकीर्णक, आभियोग्य देवों में उत्पन्न नहीं होते । जहाँ पर निन्दनीय भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त होती है, वहाँ कहीं भी उत्पन्न नहीं होते । कुभोग भूमि में भी उत्पन्न नहीं होते । पण्डित दौलतरामजी ने कहा है - "प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन षंड नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी ।। तीन लोक तिहुँ काल माँहि नहिं, दर्शन सो सुखकारी । सकल धर्म को मूल यही इस बिन करनी दुखकारी ॥। १ सम्यग्दर्शन की महिमा से अभिभूत हुए श्रोताओं में सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय जानने की जिज्ञासा जागृत हो गई। एतदर्थ उन्होंने आचार्यश्री से सम्यग्दर्शन समझाने का निवेदन किया । हे स्वामिन! हमने पहले भी सुना था कि सम्यग्दर्शन के बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं होती, परन्तु तब हमने ध्यान नहीं दिया; अब आप कृपया इस विषय को विस्तार से बतायें।

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