Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ आचार्य के पंचाचार चलते फिरते सिद्धों से गुरु अहित का श्रद्धान हो । जैसे कि - जीवतत्त्व को ध्येय एवं अजीव को ज्ञेय जाने, आस्रव-बंध को हेय माने, संवर-निर्जरा को एकदेश उपादेय और मोक्ष को पूर्ण उपादेय मानकर श्रद्धा करें। २. 'आपापर' के श्रद्धान का प्रयोजन यह है कि - मुख्य रूप से मैं जीव हूँ, शरीर अजीव है दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दोनों के बीच अत्यन्ताभाव रूप वज्र की दीवाल है। अतः शरीर से जीव को सुख-दुःख नहीं होता - ऐसा जानकर अत्यन्त निकटवर्ती शरीर से जब राग कम होगा तो शरीर से संबंधित पर संयोगों से मोह कम हो ही जायेगा। ३. जहाँ 'आत्म श्रद्धान' लक्षण कहा - वहाँ पर' से भिन्न आपको (स्वयं को) ही आप रूप जानने की बात है। इससे सम्पूर्ण पर और पर्याय के विकल्प टूट जाते हैं। शुद्ध आत्मानुभूति हो जाती है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन का यह स्वरूप ही कार्यकारी है। ४. तथा जहाँ 'सच्चे देव-गुरु-धर्म का श्रद्धान' सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है, वहाँ बाह्य साधन निमित्तों की प्रधानता से कथन किया है; क्योंकि अरहंत देवादिक का श्रद्धान ही सच्चे तत्वार्थश्रद्धान का कारण है। अतः बाह्य कारण की अपेक्षा से कल्पित कुदेवादिक का श्रद्धान छुड़ाकर सुदेवादिक का श्रद्धान कराने के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन का लक्षण कहा है। मिथ्यात्व के उपशमादि होने पर जहाँ विपरीताभिनिवेश का अभाव होता है, वहाँ चारों ही लक्षण युगपत् पाये जाते हैं? यद्यपि ज्ञानोपयोग में नाना प्रकार के विचार होते हैं, इसके कथन में सापेक्षपना पाया जाता है वस्तु का श्रद्धान तो निर्पेक्ष ही होता है, उसका कथन सापेक्ष होता है ।१४ उक्त चारों लक्षणों में तत्वार्थश्रद्धान लक्षण मुख्य है; क्योंकि इस लक्षण में चारों ही लक्षण समाहित हैं; अन्य लक्षणों में चारों का समावेश नहीं होता। जैसे कि सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान लक्षण में इतना ही भासित होता है कि अरहंतादि को ही सच्चा देव मानना, रागी द्वेषी-देवों को सच्चा देव नहीं मानना। इसीप्रकार आपापर के श्रद्धान में मात्र यही भासित होता है कि आपापर को ही जानना, यही सम्यक् है। यहाँ शेष को गौण किया गया है। आत्मश्रद्धान लक्षण में ऐसा मान लें कि आत्मा ही का विचार कार्यकारी है, इसी से सम्यक्दर्शन होता है, वहाँ भी जीव-अजीव के विशेष भासित न हों तो भी मोक्षमार्ग के प्रयोजन की सिद्धि में बाधा नहीं है। अतः तत्वार्थश्रद्धान सम्यक्दर्शन लक्षण को मुख्य रखा है। तत्त्वार्थ का निर्णय करने के लिए स्यावाद शैली में लिखे गये अनेकान्त के निरूपक शास्त्रों का स्वाध्याय करना होगा। वे शास्त्र सर्वज्ञ (अरहंत) देव की वाणी को सुनकर गणधर देवों द्वारा निरूपित हैं, उन्हें समझने के लिए निर्ग्रन्थ ज्ञानी गुरु ही परम शरण हैं अतः देव एवं गुरु की शरण में जाकर सर्वप्रथम तत्वार्थ को समझें, एतदर्थ सर्वज्ञ का स्वरूप समझना भी अनिवार्य है। कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार गाथा ८० में लिखा है - "द्रव्य गुण पर्याय से, जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आत्मा, दृग मोह उनका नाश हो ।। जो अरहंत को द्रव्य से, गुण से और पर्याय से जानते हैं, वे वास्तव में आत्मा को भी जानते हैं; क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं हैं। ऐसा ज्ञान होने पर उनका मोह अवश्य क्षय हो जाता है। अतः आत्महित के लिए सर्वप्रथम सर्वज्ञ (केवलज्ञानी) के स्वरूप का निर्णय करें।" ___ हम जिनका उपदेश सुनते हैं और जिनके बताये मार्ग पर चलना चाहते हैं, जिनके दर्शन, पूजन कर हम कृतार्थ होना मानते हैं, ऐसे अरहंत की पहचान यदि हमें नहीं है तो हम बिना जाने/पहचाने किसके दर्शन करते हैं? क्या यह विचारणीय बात नहीं है? 44

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