Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 41
________________ आचार्य के पंचाचार चलते फिरते सिद्धों से गुरु जब यह प्रस्ताव लेकर समिति के व्यक्ति आचार्यश्री से निवेदन करने गये तो आचार्यश्री ने आँख पलटते हुए कहा - "कैसी बातें करते हो? ये सब समस्यायें थोड़े-बहुत रूप में प्रतिवर्ष आती ही हैं। हम और हमारा संघ इन सब परिस्थितियों का सहजता से सामना करने में समर्थ है। आगम में ऐसा विधान है कि यदि पानी का प्रवाह घुटनों तक हो तो उसमें चलकर जा सकते हैं। तथा कीचड़ आदि में से भी परिमर्दित मार्ग से जा सकते हैं। परिमर्दित अर्थात् जिस मार्ग से मानवों और पशुओं का आवागमन प्रारंभ हो गया है।' ___ आचार्यश्री ने आगे कहा - आगम में इन परिस्थितियों के विषय में ऐसा भी लिखा मिलता है कि - एक होता है राजमार्ग और दूसरा होता है अपवाद मार्ग । अपवाद मार्ग को संकटकाल में अपनाया जाता है। किन्तु संकटकाल में भी अहिंसक रीति से ही यदि कोई विकल्प संभव हो तो ही अस्थाई उपाय किया जाना चाहिए। इस बहाने किसी भी प्रकार से शिथिलता नहीं होना चाहिए।" इतना समाधान करते हुए आचार्यश्री ने कहा - "चलो प्रवचन के लिए श्रोता प्रतीक्षा कर रहे हैं। तुम भी पहुँचो, हम भी आते हैं।" आचार्यश्री प्रवचन स्थल पर पहुँचे, प्रवचन प्रारंभ हुआ। आचार्यश्री ने कहा - "आज पंचाचार विषय की चर्चा करना है। मुनि साधना के सिद्धान्तों का व्यावहारिक, प्रयोगात्मक अथवा क्रियात्मक पक्ष आचार कहलाता है। आचार के निम्नांकित पाँच भेद हैं - (१) दर्शनाचार, (२) ज्ञानाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार और (५) वीर्याचार । इसकारण इन्हें पंचाचार कहते हैं। १. दर्शनाचार :- पंचपरमेष्ठी की आराधना में एवं पंचपरमेष्ठी के पदों की प्राप्ति में पंचाचारों के पालन करने का महत्त्वपूर्ण योगदान है। पंचाचारों में दर्शनाचार ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि दर्शनाचार के बिना कोई भी आचार सम्यक्पने को प्राप्त नहीं हो सकता है। आचार्य सकलकीर्ति ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति मूलाचार प्रदीप में दर्शनाचार का निरूपण २४२ गाथाओं में किया है, दर्शनाचार अर्थात् सम्यग्दृष्टि का बाह्य आचार, इस संदर्भ में सम्यग्दर्शन की जो महिमा आगम में गाई गई है उसका संक्षिप्त सार यहाँ प्रस्तुत है। "यह सम्यग्दर्शन समस्त गुणों का निधान है, मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है, पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुठार के समान है, धर्म का मूल है और सुख का समुद्र है; इसलिए पुण्यवान पुरुषों को परम यत्न से इस सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिए।" सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का निम्न कथन भी अनुशीलन करने योग्य है - "दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।। जिनवरदेव ने अपने शिष्यों से कहा है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है; अतः हे भव्यो! तुम कान खोलकर सुन लो कि सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति वन्दन करने योग्य नहीं है।" “सम्मत्तरयणभट्टा जाणंता बहुविहाइ सत्थाई। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ।। जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट है, वह भले ही अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानता हो, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं।” “सम्मत्तविरहियाणं सुट्ठ वि उग्गं तवं चरंताणाम्। ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ।। जो मुनि सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे हजार-करोड़ वर्षों तक भलीभाँति उग्र तप करें; तब भी उन्हें बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती है।" 'सम्मत्तणाणदसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ।।

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