Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ दिगम्बर मुनि : स्वरूप और चर्या चलते फिरते सिद्धों से गुरु सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग में मग्न होकर स्वरूपगुप्त हो जाते हैं। ___ यद्यपि चरणानुयोग की अपेक्षा शुभभावों को शुद्धोपयोग की संज्ञा भी दी है, क्योंकि ये शुभ क्रियायें शुद्धोपयोग के लिए ही की जाती हैं।१० यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त के अन्दर उन्हें सातवें से छठवाँ एवं छठवें से सातवाँ गुणस्थान होता ही रहता है, इसकारण वे आहारविहार करते, उपदेश करते एवं शास्त्र लिखने के बीच-बीच में भी उन्हें शुभोपयोग से शुद्धोपयोग होता है। अशुभभावों का तो मुनि भूमिका में अस्तित्व ही नहीं होता। उनका आहार भी तप बढ़ाने का हेतु होने से शुभभाव ही है, जबकि गृहस्थ का आहार-विहार अशुभभाव है; क्योंकि गृहस्थ का आहार-विहार शरीरपोषण, भोगों और आरंभपरिग्रह संग्रह के लिए होता है। छहढाला में भी कहा है - इक बार दिन में ले अहार खड़े अल्प निज पान में। तथा - लें तप बढ़ावन हेत नहि, तन पोषते तज रसन को ।। मुनिराज दिन में एक बार ही आहार लेते हैं, वह भी भरपेट नहीं अल्पाहार ही लेते हैं और वह भी खड़े-खड़े अपने हाथ में ही लेते तथा तप की वृद्धि हेतु लेते हैं, तन पोषण के लिए नहीं।” ___ ध्यान व अध्ययन के लिए मुनिराज एकान्त में रहना चाहते हैं, एतदर्थ वन में वसतिकायें बनाई जाती हैं, नगर से दूर नसिया बनाई जाती है, जिससे कमजोर संहनन वाले साधु वन्य-जंतुओं से सुरक्षित रहकर निर्बाध आत्मसाधना, ध्यान-अध्ययन और मनन-चिन्तन कर सकें । ज्ञातव्य है कि उनकी वसतिकाओं में किवाड़-साकल-कुन्दे नहीं होते हैं, क्योंकि उन पर किसी का एकाधिकार नहीं होता। अन्यथा वह परिग्रह की श्रेणी में आ जाता है। मुनिराज नगरवासी गृहस्थों की संगति से जितने अधिक बचे रहेंगे, उतनी ही अधिक आत्मसाधना कर सकेंगे; क्योंकि गृहस्थ व्यर्थ की राग- द्वेष वर्द्धक बातें करके साधुओं का उपयोग खराब करते हैं। जिस राग-द्वेष से बचने के लिए वे साधु हुए हैं, उन्हें येन-केनप्रकारेण उन्हीं राग-द्वेषों के सामाजिक कार्यों में उलझा देना ठीक नहीं है। ___ इन गृहस्थों की लौकिक वार्ता से बचने के लिए ही वे एकान्तवासी होते हैं; पर आहार एक ऐसी आवश्यकता है कि जिसके कारण उन्हें इन गृहस्थों के सम्पर्क में आना ही पड़ता है। अतः सावधानी के लिए ये नियम रखे गये हैं कि जब मुनि आहार के विकल्प से नगर में आते हैं तो मौन लेकर ही आते हैं। दूसरे, वे खड़े-खड़े ही आहार करते हैं। तीसरे, वे करपात्री ही होते हैं। क्योंकि भोजन की जो स्वाधीनता हाथ में खाने में है, वह थाली में खाने में नहीं रहती। अतः वे करपात्री ही होते हैं। मुनि को तो शुद्ध सात्त्विक आहार से अपने पेट का खड्डा भरना है, वह भी आधा-अधूरा । शान्ति से बैठकर धीरे-धीरे स्वाद ले-ले कर भरपेट खाना उन्हें अभीष्ट नहीं है; क्योंकि भरपेट खाने के बाद आलस का आना स्वाभाविक ही है। अत: जिन मुनिराजों को आहार से लौटने पर छह घड़ी तक सामायिक करनी है, वे प्रमाद बढ़ानेवाला भरपेट भोजन कैसे कर सकते हैं ? इसकारण मुनिराजों का अल्पाहार ही होता है। वे मात्र जीने के लिए शुद्ध-सात्त्विक अल्प आहार लेते हैं। वे पानी भी भोजन के समय ही लेते हैं, बाद में पानी भी नहीं लेते। यह तो आप जानते ही हैं कि मुनिराज जब आहार लेकर वापिस लौटते हैं तो उन्हें आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित होकर आहारचर्या के काल में मन-वचन-काय की क्रिया में यदि कोई दोष लग गया हो तो वह सब भी बताकर प्रायश्चित्त लेना होता है; क्योंकि आहार के काल में गृहस्थों के समागम की अनिवार्यता है और उनके समागम में दोष होने की संभावना भी अधिक रहती है। इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि गृहस्थों का समागम साधुओं के लिए कितना हानिप्रद है। 22

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