Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु तीसरी बात यह है कि – “सच्चे मुनियों को तो अतीन्द्रिय आनन्द सागर में डूबे रहने, उसी में बारम्बार डुबकी लगाने से ही फुरसत नहीं है। वे अपने स्वाभाविक सुख के वातानुकूलित वातावरण में मग्न रहते हैं। वे राग-द्वेष की कषायाग्नि की ज्वाला में झुलसने को स्वरूप के सुख सागर से बाहर आते ही नहीं हैं, उनसे सामाजिक संगठन और राजनीति में प्रभाव बढ़ाने की बात भी नहीं की जा सकती। यदि उन्हें यही सब करना होता तो गृहस्थी क्या बुरी थी ? - साधु के स्वरूप का चित्रण करते हुए कहा गया है कि दिन रात आत्मा का चिंतन, मृदु संभाषण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो । ज्ञानी ध्यानी समरससानी, द्वादश विध तप नित करते जो ।। चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमों पर नित यही भावना भाते हैं ।। ३८ अतः उनसे लौकिक कार्यों में उलझने की अपेक्षा रखना बिल्कुल भी उचित नहीं है; क्योंकि मुक्ति पाने के उग्र पुरुषार्थी अल्प काल में वहाँ पहुँच जाते हैं, जहाँ से इस काल में मुक्ति होती है। इसकारण तत्त्वज्ञा मुनिराज अपने अन्तर्मुखी पुरुषार्थ से हटते नहीं हैं, सामाजिक और राजनैतिक कार्यों में अटकते नहीं हैं, अपने मोक्षमार्ग से भटकते नहीं हैं। ऐसे मुनिराजों से लौकिक कार्य सिद्ध करने / कराने की अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। उन्हें संसार मार्ग में अटकाना किसी के भी हित में नहीं है। पुनश्च, जो काम गृहस्थों का है, उसमें साधु-संतों को क्यों उलझाना ? क्या यह काम साग-भाजी के लिए हीरे का हार गिरवी रखने जैसा नहीं है ? आचार्यश्री ने प्रवचन के बीच में इसे अनुशासन भंग मान कर अनुशासन की सीख देते हुए कहा- “किसी के ऐसे विचार भी हो सकते हैं कि - ये ऊँची-ऊँची बातें तो चौथे काल के मुनियों की बातें हैं। यह तो 20 दिगम्बर मुनि: स्वरूप और चर्या ३९ पंचमकाल है, कलयुग का जमाना है, लोगों में संहनन भी वैसे नहीं हैं। अतः जमाने के साथ कुछ समझौता तो करना ही चाहिए न ?” उन महानुभावों की एक बात तो यह विचारणीय है कि - "शास्त्रों में जो कुछ भी साधुचर्या का उल्लेख है, वह पंचमकाल के आचार्यों ने पंचमकाल के मुनियों के लिए ही लिखा है, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड, मूलाचार, भगवती आराधना आदि शास्त्रों की रचना अपने संघ के साधुओं की प्रमुखता से ही की गई है। उक्त आचार संहिता काल के मुनिराजों को ही बनाई है और उन्होंने अपने संघ के मुनिराजों से इसका पालन भी कठोर अनुशासन के साथ कराया था । इस आचार संहिता का पालन नहीं करनेवाले को अष्टपाहुड़ में का पात्र तो कहा ही है, उन्हें तिर्यंच कहकर डांटा/फटकारा भी है। " दूसरी बात यह है कि सत्य से समझौता नहीं होता । सत्य के यथार्थ स्वरूप को समझकर उसे स्वीकार करना ही मुनिधर्म है। जो मुनिधर्म का निर्दोष रूप से पालन नहीं कर सकते, उनके लिए कहा है - कीजे शक्ति प्रमान शक्ति बिन श्रद्धा धरो । द्यानत श्रद्धावान अजर-अमर पद भोगवे ।। अध्यात्मरसिक ब्र. रायमलजी ने अपने ज्ञानानन्द श्रावकाचार में मुनिराज के स्वरूपगुप्त रहने का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि - “जैसे कोई प्यास से पीड़ित पुरुष, ग्रीष्म ऋतु में मिश्री की डली से घुला मिला शीतल जल अत्यन्त रुचि से गटक-गटक कर पीता है और तृप्त होता है; वैसे ही शुद्धोपयोगी महामुनि स्वरूपाचरण में अत्यन्त तृप्त हैं, बार-बार उसी रस को चाहते हैं। किसी समय उसको छोड़कर पूर्व की वासना से शुभोपयोग में लगते हैं, तब यह जानते हैं कि यह मेरे ऊपर आफत आयी है। यह हलाहल विष के समान आकुलता मुझसे कैसे भोगी जाए ? इस समय मेरा आनन्दरस निकल गया है। पुनः मुझे आनन्दरस की प्राप्ति कब होगी। मेरा स्वभाव तो अतीन्द्रिय आनन्दरूप अनुपम स्वरस पीने का है; अतः मुझे तो वही प्राप्त हो ।

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