Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ ३६ चलते फिरते सिद्धों से गुरु करना चाहते, तो लौकिक उपदेशादि का तो प्रश्न ही नहीं उठता।" जो वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं, वे अंतरंग - बहिरंग मोह की ग्रन्थि को खोलनेवाले हो जाते हैं। परीषहों व उपसर्गों के द्वारा वे पराजित नहीं होते और कामरूपी शत्रु को जीतनेवाले होते हैं । इत्यादि अनेकप्रकार के गुणों से युक्त साधुओं को किसी से नमस्कार कराने की अपेक्षा नहीं होती, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति के लिए मुमुक्षुओं द्वारा वे स्वतः ही नमस्कार करने योग्य होते हैं, मोक्षार्थी उन्हें स्वयं ही वंदन करते हैं; किन्तु इन गुणों से रहित विद्वान साधु भी नमस्कार करनेयोग्य नहीं हैं। मुनिराज मोह-क्षोभ रहित साम्यभाव के धारक होते हैं। उक्तं च - चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो सम्मोत्तिणिदिट्ठो । मोह-खोह विहीणो परिणामो हि समोति णिदिट्ठो ।। " नियमसार में भी श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिनके ऐसा साम्य भाव नहीं है, उनका वनवास, कायक्लेशरूप अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, ध्यान आदि सबसे कुछ लाभ नहीं। सभी प्रकार के उक्त साधनों का प्रयोजन एकमात्र समताभाव का धारण करना है। मुनिपद की महिमा का उल्लेख करते हुए पंचाध्यायीकार ने आचार्य, उपाध्याय पद से भी साधु पद को श्रेष्ठ लिखा है। वे लिखते हैं कि - 'साधु हुए बिना किसी को केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती।' परमागम में यह अन्वर्थ रूढि प्रसिद्ध है कि वास्तव में साधु पद को ग्रहण किये बिना किसी को भी केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है। 'श्रेणी पर अधिरूढ आचार्य आदि को भी अपना पद छोड़कर साधु की भूमिका प्राप्त करनी होती है; क्योंकि आचार्य और उपाध्याय भी श्रेणी चढ़ने के काल में सम्पूर्ण चिन्ताओं के निरोधरूप ध्यान को भी धारण करते हैं जो आचार्य व उपाध्याय पद के उत्तरदायित्व के साथ संभव नहीं है। यहाँ सामाजिक विचारधारावाले कार्यकर्त्ता व्यक्ति यह कह सकते हैं। 19 दिगम्बर मुनि: स्वरूप और चर्या ३७ कि “महाराज ! इस काल में एवं इस क्षेत्र में न केवलज्ञान होता है और न मुक्ति ही होती है। ऐसी स्थिति में यदि कोई साधु-संत लौकिक कार्यों में रुचि लेते हैं तो हर्ज ही क्या है ? और सामाजिक सुधार हो एवं राजनीति में अपना प्रभाव रहे, जैनेतरों में जिनधर्म की प्रभावना हो, इसके लिए यदि साधु संतों का सहयोग मिल जाता है तो हमारी सफलता में चार चांद लग जाते हैं। आज तीर्थ सुरक्षित नहीं हैं, प्राचीन मन्दिर जीर्ण-शीर्ण हो रहे हैं, समाज संगठित नहीं है, समाज में कुप्रथाओं का बोलबाला है, घर-घर में कलह है, अर्थ प्रधान युग है। इन समस्याओं के समाधान के लिए यदि संतों के आशीर्वचन एवं थोड़े से सहयोग से काम बनता है तो हमारे ख्याल से तो कुछ हानि नहीं है ।" आचार्यश्री ने समाधान किया कि - "भाई ! तुम्हारे ख्यालों से मुनिमार्ग नहीं चलता। देखना यह कि इस विषय में जिनागम में क्या आज्ञा है ? जिनागम के अनुसार 'पहली बात तो यह है कि यद्यपि इस क्षेत्र व इस पंचम काल में केवलज्ञान एवं मुक्ति तो नहीं होती, किन्तु आगम के •अनुसार मुक्तिरूपी कल्पवृक्ष के अतीन्द्रिय आनन्दरूप मधुर फल प्राप्त करने हेतु सम्यक्त्वरूप बीज बोने का मंगल अवसर तो यही है, अभी ही है। यदि यह अवसर चूक गये तो पुनः यह अवसर सागरों पर्यंत नहीं मिलेगा । अतः यह मुनिव्रत लेकर अन्यत्र कहीं भी उलझना श्रेयस्कर नहीं है। दूसरी बात यह है कि - जिन्होंने मुनिव्रत की ऊँची प्रतिज्ञा लेकर तथा जिन शुभाशुभ आस्रव भावों को हेय जानकर छोड़ने का संकल्प किया है। तथा संवर, निर्जरा एवं मुक्ति के लिए रत्नत्रय की आराधना / साधना कर मुक्ति के मार्ग में अग्रसर होने की प्रतिज्ञा की है, उस प्रतिज्ञा को भंग करने से बड़ा भारी अक्षम्य अपराध बनता है; क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि “प्रतिज्ञा न लेने का अल्प दोष है और प्रतिज्ञा लेकर उसे भंग करने का तथा उसमें अतिचार लगाने पर बड़ा अपराध है, जिसका फल दीर्घ संसार है। "

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