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चलते फिरते सिद्धों से गुरु की यथार्थ पहिचान नहीं है, इसलिए वे सरागभाव में संवर का भ्रम करके प्रशस्त रागरूप कार्यों का उपादेयरूप श्रद्धान करते हैं।
नियमसार गाथा ६१ से ६५ में ही आचार्य कुन्दकुन्द ने समितियों का स्वरूप इसप्रकार बताया है -
१. “जो श्रमण प्रासुक मार्ग पर दिन में धुरा प्रमाण (चार हाथ) आगे देखकर चलते हैं, उन्हें ईर्या समिति होती है।
२. जो श्रमण चुगली, हास्य, कर्कशभाषा, परनिन्दा और आत्मप्रशंसारूप वचन का परित्यागी होकर स्व-पर हितरूप वचन बोलते हैं, उन्हें भाषा समिति होती है।
३. जो श्रमण पर के द्वारा दिया गया, कृत-कारित-अनुमोदना रहित, प्रासुक और प्रशस्त भोजनरूप सम्यक् आहार को ग्रहण करते हैं, उन्हें एषणा समिति होती है।
४. जो श्रमण पुस्तक, कमण्डलु आदि उठाने-रखने आदि संबंधी सत्प्रयत्न परिणाम करते हैं, उन्हें आदान निक्षेपण समिति होती है।
५. जो श्रमण पर के विरोधरहित, निर्जन और प्रासुक भूमिप्रदेश में मलादि का त्याग करते हैं, उन्हें प्रतिष्ठापन समिति होती है।" पाँच इन्द्रियों का निरोध -
इन्द्रिय निरोध का स्वरूप बताते हुए छहढालाकार पण्डित दौलतरामजी ने छठवीं ढाल में कहा है -
"रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध पञ्चेन्द्रिय-जयन पद पावने।" मूलाचार में पाँच इन्द्रिय-निरोध का वर्णन निम्न प्रकार किया है -
१. “जीव और अजीव से उत्पन्न हुए एवं कठोर, कोमल आदि आठ भेदों से युक्त सुख और दुःखरूप स्पर्श में मोह-रागादि नहीं करना, स्पर्शेन्द्रिय-निरोध है।
मुनि के २८ मूलगुण
२. खाद्य, स्वाद्य, लेय एवं पेयरूप चारों प्रकार के अशन जो पंच रसयुक्त, प्रासुक, निर्दोष, रुचिकर अथवा अरुचिकर पर के द्वारा दिया गया हो, उस आहार में लम्पटता नहीं होना रसनेन्द्रिय निरोध है।
३. प्राकृतिक तथा पर-निमित्तिक गंध में राग-द्वेष नहीं करना, घ्राणेन्द्रिय निरोध है।
४. सचेतन व अचेतन पदार्थों की क्रिया में आकार और वर्ण में प्रिय-अप्रिय लगनेरूप राग-द्वेष का त्याग करना चक्षुरिन्द्रिय निरोध है।
५. वीणा आदि यंत्रों से उत्पन्न हुए शब्दों को सुनकर राग-द्वेष नहीं करना कर्णेन्द्रिय निरोध है।" छह आवश्यक
छह आवश्यक के विषय में मूलाचार में कहा है - "मुनियों को अवश्य करने योग्य कार्यों को आवश्यक कहते हैं। सर्व कर्म के निर्मूलन करने में समर्थ ऐसे नियम-विशेष को पालन करने को आवश्यक कहते हैं। जो कषाय, राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो, वह अवश है, उस अवश का जो आचरण है, वह आवश्यक है।"
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - “जो आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराती हैं, वे छहों क्रियाएँ आवश्यक हैं।”
आवश्यकों का संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार है - "समता सम्हारें, थुति उचारे, वन्दना जिनदेव को।
नित करें श्रुतरति, करें प्रतिक्रम, तजैतन अहमेव को।। समता धारण करना, जिनेन्द्रदेव की स्तुति करना, वंदना करना, शास्त्र-पठन में रुचि, प्रतिक्रमण करना तथा कायोत्सर्ग करना।"
मूलाचार में मुनियों के षट् आवश्यक का वर्णन करते हुए कहा है
१. “जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु तथा सुख-दुःख इत्यादि में समभाव होना समता या सामायिक आवश्यक है।
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