Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ ५० चलते फिरते सिद्धों से गुरु पाँच महाव्रतों का स्वरूप - आचार्य कुन्दकुन्द ने पंच महाव्रतों का स्वरूप इसप्रकार कहा है - १. जीवों के कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि जानकर, उनके आरम्भ में निवृत्तिरूप परिणाम करना अहिंसा महाव्रत है। २. राग, द्वेष अथवा मोह से होनेवाले असत्य वचन के परिणाम को छोड़ना सत्य महाव्रत है। ३. ग्राम, नगर या वन में परायी वस्तु को देखकर, उसे ग्रहण करने का भाव छोड़ना अचौर्य महाव्रत है। ४. स्त्रियों का रूप देखकर, उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति करना अथवा मैथुन संज्ञारहित परिणाम होना - ब्रह्मचर्य महाव्रत है। ५. निरपेक्ष भावनापूर्वक एक मिथ्यात्व, चार कषायें, नोकषायेंरूप इस तरह चौदह प्रकार का अंतरंग परिग्रह एवं दस प्रकार के बाह्य परिग्रहों के त्यागरूप चारित्र को धारण करना अपरिग्रह महाव्रत है।" पाँच समितियों का स्वरूप पाँच समिति का स्वरूप बताते हुए कहा है कि - "सम्यक् अयन अर्थात् सम्यक्प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। गमन आदि क्रियाओं में सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। ये भी ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति के भेद से पाँच होती हैं।" पद्मप्रभमलधारिदेव ने कहा है कि - "यदि जीव निश्चय समिति को उत्पन्न करे तो वह मुक्ति को प्राप्त करता है, समिति के अभाव में वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महासागर में ही भटकता है।" पण्डित टोडरमलजी ने कहा है कि "मुनियों के किंचित् राग होने पर आहार, विहार और निहार के निमित्त गमनादि क्रिया होती है, वहाँ उन क्रियाओं में अति आसक्तता के अभाव में प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती मुनि के २८ मूलगुण तथा अन्य जीवों को दुःखी करके अपना प्रयोजन नहीं साधते । इसलिए स्वयमेव ही दया पलती है। इसप्रकार यह सच्ची समिति है।" यहाँ ज्ञातव्य है कि - "सम्यग्दृष्टि को समिति में जितने अंश में वीतरागभाव है, उतने अंश में संवर है और जितने अंश में राग है, उतने अंश में शुभ बन्ध है। मंदकषायी द्रव्यलिंगी पहले गुणस्थानवर्ती मुनि के भी शुभोपयोगरूप समिति होती है, किन्तु वह संवर का कारण नहीं है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में समिति को संवर के कारणों में गिना है, इसका कारण यह है कि जैसे सम्यग्दृष्टि के वीतरागता के अनुसार पाँच समिति संवर का कारण होती हैं; परन्तु उनके भी जितने अंश में राग है, उतने अंश में वे आस्रव का भी कारण होती हैं। अत: संवर अधिकार में संवर की मुख्यता होने से समिति को संवर के कारणरूप से वर्णन किया है और इसी तत्त्वार्थसूत्र के छठवें अध्याय में आस्रव की मुख्यता है, अत: वहाँ समिति में जो राग अंश है, उसे आस्रव के कारणरूप से वर्णन किया है। समिति में चारित्र का मिश्ररूप भाव है - ऐसा भाव सम्यग्दृष्टि के होता है, उसमें आंशिक वीतरागता है और आंशिक राग है। जिस अंश में वीतरागता है, उस अंश के द्वारा तो संवर ही होता है और जिस अंश में सरागता है, उस अंश के द्वारा बंध ही होता है। सम्यग्दृष्टि के ऐसे मिश्ररूप भाव से तो संवर और बन्ध - ये दोनों कार्य होते हैं; किन्तु अकेले राग के द्वारा ये दो कार्य नहीं हो सकते; इसलिए अकेले प्रशस्त राग से पुण्यासव भी मानना और संवर-निर्जरा भी मानना भ्रम है। मिश्ररूप भाव में भी यह सरागता है और यह वीतरागता है - ऐसी यथार्थ पहचान सम्यग्दृष्टि के ही होती है। इसीलिए वे अवशिष्ट सरागभाव को हेयरूप से श्रद्धान करते हैं। मिथ्यादृष्टि को सरागभाव और वीतरागभाव 26

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