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हुए वस्त्र विदेशों को भी जाते थे। उस समय भारत को इस कारोबार से अच्छा लाभ था, किन्तु आज उल्टी ही गंगा बह रही है, हमें तन ढकने के लिए विदेशों का मुहताज होना पड़ रहा है। अपने देश का वस्त्र व्यवसाय नष्ट भ्रष्ट हो गया है। पिछले महायुद्ध में धोती जोड़े का दाम चौगुना हो गया था, परन्तु लाचार होकर हमें वही खरीदना पड़ा। भारतीयों को अब चर्खे की पुनः शरण लेनी पड़ेगी। पुरातन भारत में भी स्त्रियां-पुरुष घर-घर सूत काता करते थे और उन्हीं के काते हुए सूत का कपड़ा उनके तन ढांकने के काम आता था। आज भी यदि भारत के बेकार स्त्री-पुरुष भारत के भूले हुए इस उद्योग को अपना लें और बेकार इधर-उधर की धूल फांकने के बजाय यदि मन को मार कर सूत कातना प्रारम्भ कर दें, तो उनके कष्टों में उससे कुछ कमी अवश्य होगी।
अगले अंक में 'जैन संदेश' ने लिखा-प्रत्येक जिले में ऐसी केन्द्रीय संस्था हो, जो तैयार खादी की खपत वगैरह का प्रबन्ध करे और धनिकों से चन्दा माँगने के बजाये खादी खरीदने का अनुरोध करे। इस तरह की संस्था से बेकार भाइयों और बहिनों को राहत मिलेगी। अपने भाइयों की बेकारी दूर करने के लिए हमें चर्खे को अपनाना चाहिए।
जैन संदेश ने ‘गाँधी जी और अहिंसा' शीर्षक से लिखे सम्पादकीय में लिखा-गाँधी जी की अहिंसा से कोई सहमत हो या न हो, किन्तु इस बात से सम्भवतः सभी सहमत हैं कि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के बाद संसार में अहिंसा की पुनः प्रतिष्ठा बढ़ाने का श्रेय गाँधी जी को ही प्राप्त है। अहिंसा और जैनत्व एक तरह से पर्यायवाची ही है, क्योंकि अहिंसा भाव के बिना जैनत्व ठहर ही नहीं सकता, जो सच्चा अहिंसक है, वही तो जैन है। जैन धर्म के प्रवर्तकों की यही तो संसार को अनुपम देन है। इस हिसाब से गाँधी जी सच्चे जैन की श्रेणी में आते हैं। गाँधी जी तो स्वराज्य से भी अधिक अहिंसा पर ही जोर देते हैं। एक बार उन्होंने कहा भी था कि हिंसा से प्राप्त स्वराज्य भी मुझे स्वीकार न होगा। यदि देश के नेता और जनता अहिंसा की शक्ति का अनुभव न कर लेते, तो क्या वे कभी गाँधी जी को अपना पथ प्रदर्शक मान सकते थे?59 गाँधी जी के अहिंसा और उसके परिकर विषयक विचारों तथा कार्यों से यह स्पष्ट है कि उनकी अहिंसा न बनावटी है और न मतलब से भरी हुई, उसे तो वे आध्यात्मिक और लौकिक सुख और शांति का अमोध उपाय समझते हैं।
जैन संदेश ने अपने सम्पादकीय के माध्यम से देशवासियों के विचारों को प्रभावित किया। पत्र के कुछ सम्पादकीय लेख विशेष रूप से सराहे गये, जिनमें 2 मई, 1940 को प्रकाशित गाँधी और अहिंसा, 23 मई 1940 को प्रकाशित 'हम और अहिंसा', 17 अक्टूबर 1940 का 'भारत का रोग : नेतागिरि', 13 मार्च 1941 का
182 :: भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में उत्तरप्रदेश जैन समाज का योगदान