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बागडोर सम्भालने को तैयार हो गये । लेखक ने अपने शब्दों में लिखा- 'कैसे बहादुरशाह पकड़ा गया, कैसे उसके दो बच्चों का खून पिया गया। अलंकार में नहीं, चुल्लुओं में पिया गया, किस तरह अंग्रेजों की अमलदारी फिर हो गयी, फिर किस तरह शांति फैली और किस तरह फाँसियाँ दी गई और किस तरह और बहुत से ढके और उघड़े काम किये गये, यह सभी को पता है ।' जब क्रांति शांत हो गयी, तो चौधरी ने उस अंग्रेज महिला को उसके घर के पास सुरक्षित छोड़ दिया । वह अंग्रेज महिला चौधरी का अहसान मानती हुई अपने कर्नल पति के पास चली गयी। उसका अब एक मार्शल कोर्ट का न्यायधीश है । अपनी पत्नी को पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ ।
इधर दूसरी ओर पुलिस ने पुरे के चौधरी को गदर में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिया और उसे मार्शल कोर्ट के उसी न्यायधीश के सामने पेश किया गया, जिसकी पत्नी की चौधरी ने रक्षा की थी, परन्तु मजिस्ट्रेट और चौधरी इस परिचय से अनभिज्ञ थे। कोर्ट में चौधरी से तमाम सवाल जवाब किये गये। अंत में चौधरी ने गरजकर कहा-'मैं तुम लोगों को यहाँ नहीं चाहता । तुम लोगों का राज मैं नहीं मानता। यह तुम्हारी मजिस्ट्रेटी भी मुझे स्वीकार नहीं है। तुम अंग्रेज हो, अपने देश में रहो। हम हिन्दुस्तानी हैं, हम यहाँ रह रहे हैं । तुम्हारे यहाँ जगह नहीं है, कम है-अच्छी बात है, तो फिर यहाँ रहो, पर आदमियों की तरह से रहो । यह तुम्हारी सिर पर चढ़ने की आदत कैसी है? सो ही हम नहीं चाहते, ऐसे जब तक रहोगे, तब तक हम तुम्हारे खिलाफ रहेंगे। भाई बनकर रहोगे । बराबर-बराबर के । गोरेपन की ऐंठ में न रहोगे, तो हम भी तुमसे ठीक व्यवहार करेंगे और फिर देखें कौन तुम्हारा बाल भी छू सकता है, परन्तु यदि ऐसे नहीं बनोगे, तो हमारे दम में जब तक दम है, तब तक हम तुम्हारे दुश्मन रहेंगे । बस और क्या कहलवाते हो?
न्यायधीश ने चौधरी को फाँसी की सजा सुना दी। कोर्ट से घर जाकर न्यायधीश संयोगवश अपनी पत्नी से इस केस का जिक्र करता है । जैसे ही उसकी पत्नी यह सुनती है कि चौधरी को उसके पति ने ही फाँसी दे दी है, तो वह चीख मारकर मूर्छित हो पड़ती हैं। उसके बाद जब उसकी मूर्छा टूटती है, तो वह दौड़ी-दौड़ी फाँसी स्थल पर पहुँचती है और लाशों के ढेरों में से चौधरी का शव खोजकर, गाड़ी में रखकर उसे अपने बंगले पर ले आती है ।
लेखक ने लिखा- बंगले पर लाश को खास कमरे में ले जाया गया। ईरान का बना हुआ कालीन खून के धब्बे से लाल होता जा रहा है। इसकी उसे परवाह न हुई । कहा- जॉन ! सुनो! इधर आओ। इसकी क्रिया ठीक तौर पर करनी होगी और सब खर्च तुम्हें करना होगा । सुना? करोगे? जॉन ने सम्मतिसूचक सिर हिला दिया । अच्छा, अब इनके पैरों में सिर नवाओ ! यह देवता आदमी था । विश्वास रखो, विश्वास रखो,
196 :: भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में उत्तरप्रदेश जैन समाज का योगदान