Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 11
________________ ओर श्रमण विचारधारा ने तीर्थवादी प्रवत्ति को विकसित किया, इस पार से उस पार जाने की बात कही, और संसार से लौटकर, बहिरात्मन् से दूर होकर अन्तरात्मन् की ओर मुड़ने का तथा परमात्मा की ओर वापस जाने का संकल्प दिया। इस संकल्प में समर्पण नहीं, पुरुषार्थ है, वृत्तियों के सामने घुटने टेकना नहीं, साहसपूर्वक उनसे संघर्ष करना है, फैलाव नहीं, सिकुड़न है, अपने घर वापस लौटना है, विशुद्धता में पहुँचना है, अन्य किसी की भी शरण में न जाकर स्वयं की शरण में जाना है, हर आत्मा में परमात्मा तीर्थङ्कर का वास है, वह अनुपलब्धेय नहीं, सम्यक् साधना से उपलब्धेय है, पथदर्शक है। वहाँ पूजा नहीं, ध्यान है, वासना या राग नहीं, वीतराग अवस्था है। इसलिए वह जिन मार्ग है ऐसे जिनों का जिन्होंने कर्म, वासना को जीतकर स्वानुभूति के आधार पर उपदेश दिया है, स्वयं विशुद्धि के चरम शिखर पर पहुँचकर सभी प्राणियों के कल्याण की बात कही है। जिन मार्ग वस्तुत: क्षत्रिय मार्ग है, योद्धा मार्ग है; ऐसे योद्धाओं का जो इन्द्रिय वृत्तियों से संघर्ष करते हैं और निराकांक्षी होकर मृत्यु को जीत लेते हैं, परमानन्द का अनुभव करते हैं और भवसागर से पूर्णत: पार हो जाते हैं, अवतार के रूप में वापस नहीं आते। इस अन्तर के बावजूद दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे की परिपूरक हैं। (१) सांस्कृतिक अवदान इन दोनों अवधारणाओं में जैन संस्कृति श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध है जिसे आचार्यों ने साहित्य के माध्यम से बड़ी सुगढ़ता के साथ स्पष्ट किया है। इतिहास की दृष्टि से उस संस्कृति के आद्य प्रणेता तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे और उसे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और महावीर ने अनुप्राणित किया। उसी को उत्तरकाल में श्रुतधर और सारस्वत आचार्यों ने पल्लवित किया। उसी के आधार पर आचार्यों ने जैन संस्कृति की कतिपय मूल अवधारणाओं को लेकर संस्कृति के मूल कथ्य का विस्तार किया है। संस्कृति के मूल कथ्य को धर्म की परिभाषा की परिधि में रखा जा सकता है। धर्म की अनेक प्रकार से परिभाषायें देकर जैन संस्कृति की अवधारणाओं को उसके माध्यम से स्पष्ट करने का तात्पर्य यह भी है कि जीवन के सारे कोण धर्म से सम्बद्ध रहते हैं। इसलिए जैन संस्कृति के अवदान को समझने के लिए धर्म को पहले समझ लिया जाये। (१) धर्म की परिधि-अपरिमित मानवता धर्म महज रूढ़ियों और रीति-रिवाजों का परिपालन मात्र नहीं है। वह तो Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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