Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 50
________________ की दृष्टि से जैनाचार्यों के लिए यह आवश्यक था कि वे संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर समान रूप से अधिकार करें। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ही साधारणतः यह देखा जाता है कि सभी जैनाचार्य इन दोनों भाषाओं के पण्डित रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों भाषाओं में साहित्य सर्जना भी की है । अनेक आचार्यों ने तो अपने आपको “उभयभाषाचक्रवर्ती" भी लिखा है। यही कारण है कि जैन साधक आज भी संस्कृत, प्राकृत और आधुनिक भाषाओं में साहित्य - साधना कर रहे हैं। अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाएँ प्राकृत भाषा किंवा बोली के चरण आगे बढ़ते गये और अपभ्रंश के रूप में उसका विकास निर्धारित होता गया । यहाँ अपभ्रंश का तात्पर्य है जनबोली अथवा ग्रामीण भाषा । प्रारम्भ में प्राकृत भी अपभ्रंश में गर्भित थी, परन्तु उसके साहित्यिक रूप में आ जाने पर उसका मूल रूप विकसित होने लगा । इसी कुछ विकसित अथवा परिवर्तित रूप को हम अपभ्रंश कहते हैं। धीरे-धीरे अपभ्रंश में भी साहित्य-सृजन होने लगा और भाषा भी क्रमशः विकसित होती गई। फलतः अवहट्ट आदि सोपानों को पार करती हुई वह भाषा किंवा बोली आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को उत्पन्न करने में कारण बनी। ४३ डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म इस प्रकार हुआ? १. शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, गुजराती पहाड़ी बोलियाँ । २. पैशची अपभ्रंश से लहँदा और पंजाबी | ३. ब्राचड़ अपभ्रंश से सिन्धी । ४. महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी । ५. अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी, ६. और मागधी अपभ्रंश से बिहारी, बंगाली, उड़िया और असमिया भाषाओं का विकास हुआ है। १. हिन्दी भाषा, १९६६, पृ० ८५. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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