Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 56
________________ भगवान महावीर के समय के अंग साहित्य की तुलना करने वाले को दो सौतेले भाइयों के बीच जितना अन्तर होता है उतना अन्तर-भेद मालूम होना सर्वथा सम्भव हो। वर्तमान में उपलब्ध आगमों में अचेलकता को स्थान-स्थान पर उपादेय और श्रद्धास्पद माना है तथा सचेलकता को भाव की प्रधानता का तर्क देकर स्वीकार किया गया है। डॉ० जैकोबी और वेबर भी आगमों में परिवर्तन-परिवर्धन को स्वीकार करते हैं। यह इससे भी स्पष्ट है कि भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में जो उदाहरण आगमों से दिये गये हैं वे आज उपलब्ध आगमों में अप्राप्य हैं। ___ जो भी हो, यह निश्चित है कि महावीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद जो ये आगम संकलित किये गये, उनमें परिवर्तन-परिवर्धन अवश्य हुए हैं। स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में वर्णित कुछ विषय स्पष्टत: उत्तरकालीन प्रतीत होते हैं। उनका अन्त: - बाह्य परीक्षण कर समय निर्धारण करना अत्यावश्यक है। आगमों में “अढे पण्णत्ते'', “सुयं मे आउसं तेण भगवया एवमत्थ' आदि जैसे शब्द भी परिवर्तन-परिवर्धन के सूचक हैं। दिगम्बर परम्परा उपलब्ध इन आगमों को उनके मौलिक रूप में स्वीकार कर लेती तो आज आगमों का एक निखरा रूप सामने रहा होता। प्राकृत साहित्य का वर्गीकरण दिगम्बर परम्परा में परम्परागत शास्त्रों के लिए प्रायः ‘श्रुत' और श्वेताम्बर परम्परा में 'आगम' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रुत का अर्थ है वे शास्त्र जिन्हें गणधर तीर्थङ्करों से सुनकर रचना करते हैं और ‘आगम' का अर्थ है परम्परा से आया हुआ। दोनों शब्दों का तात्पर्य लगभग समान है इसलिए कहीं-कहीं दोनों परम्परायें इन दोनों शब्दों का उपयोग करती हुई भी दिखाई देती हैं। इसी सन्दर्भ में अंग, परमागम, सूत्र, सिद्धान्त आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। बौद्ध त्रिपिटक के समान जैनागम को भी आचार्यों ने 'गणिपिटक' कहा है।३ इन श्रुत अथवा आगमों के विषय का प्रतिपादन भगवान् महावीर ने किया और उसे गौतम गणधर ने यथारीति ग्रन्थों में निबद्ध किया। यहाँ हम सुविधा की दृष्टि से प्राकृत जैन साहित्य को निम्न भागों में विभक्त १. जैन साहित्य में विकार, पृ. २३. २. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. ५४३. ३. भगवती सत्र. २५३. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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