Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११. विवागसुयं
इस ग्रन्थ में शुभाशुभ कर्मों का फल दिखाने के लिए बीस कथाओं का आलेखन किया गया है। इन कथाओं में मृगापुत्र नन्दिषेण आदि की जीवन गाथायें अशुभ कर्म के फल को और सुबाहु, भद्रनन्दी आदि की जीव गाथायें शुभकर्म के फल को व्यक्त करती हैं। वर्णनक्रम से पता चलता है कि यह ग्रन्थ भी उत्तरकालीन होना चाहिए। १२. दिट्ठिवाय
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह ग्रन्थ लुप्त हो गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम आदि आगमिक ग्रन्थ इसी के भेद-प्रभेदों पर आधारित हैं। समवायांग में इसके पांच विभाग किये गये हैं - परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। इसमें विभिन्न दर्शनों की चर्चा रही होगी। पूर्वगत विभाग के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं। अनुयोग भी दो प्रकार के हैं - प्रथमानयोग और गण्डिकानुयोग। चूलिकायें कहीं बत्तीस और कहीं पांच बतायी गई हैं। उनका सम्बन्ध मन्त्र-तन्त्रादि से रहा होगा। वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यह एक विशालकाय ग्रन्थ रहा होगा। उपांग साहित्य . वैदिक अंगोपांगों के समान जैनागम के भी उपर्युक्त बारह अंगों के बारह उपांग माने जाते हैं। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो उपांगों के क्रम का अंगों के क्रम से कोई सम्बन्ध नहीं बैठता। लगभग १२वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में उपांगों का वर्णन भी नहीं आता। इसलिए इन्हें उत्तरकालीन माना जाना चाहिए। ये उपांग इस प्रकार हैं - १. उववाइय
इसमें ४३ सूत्र हैं और उनमें साधकों का पुनर्जन्म कहाँ-कहाँ होता है, इसका वर्णन किया गया है। इसमें ७२ कलाओं और विभिन्न परिव्राजकों का वर्णन मिलता है। २. रायपसेणिय
इस ग्रन्थ में २१७ सूत्र हैं। प्रथम भाग में सूर्याभदेव का वर्णन है और १. विशेष देखिये, लेखक का ग्रन्थ भगवान् महावीर और उनका चिन्तन, पाथर्डी,
१९७५.
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