Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 88
________________ ८१ को भी इसी में सम्मिलित किया जा सकता है जिसमें जिनप्रभसूरि ने जैन तीर्थों का ऐतिहासिक वर्णन किया है। पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य का सम्बन्ध जैनधर्म में मान्य महापुरुषों से आता है। इनमें उनके चरित, कर्मफल, लोकतत्त्व, दिव्यतत्त्व, आचारतत्त्व आदि का वर्णन किया जाता है। यहाँ तीर्थङ्करों, चरितनायकों, सााधकों अथवा राजाओं के जीवन चरित्र को काव्यात्मक आधार देकर उपस्थित किया गया है। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र का कथानक सार्वदेशिक और सार्वकालिक रहा है। जैन काव्य धारा में भी उसकी अनेक परम्परायें सामने आयीं और उनमें काव्य लिखे गये। संस्कृत में लिखे काव्यों में रविषेण (वि०सं० ७३४) का पद्मपुराण अथवा पद्मचरित, (१८०२३ श्लोक), जिनदास (१६वीं शती), सोमसेन, धर्मकीर्ति, चन्द्रकीर्ति आदि विद्वानों के पद्मपुराण प्रसिद्ध हैं। महाभारत विषयक पौराणिक महाकाव्यों में जिनसेन का हरिवंशपुराण (शक सं० ७०५), देवप्रभसूरि (वि० सं० १२७०) का पाण्डवचरित, सकलकीर्ति (१५वीं शती) का हरिवंशपुराण, शुभचन्द्र (वि० सं० १६०८), वादिचन्द्र (वि०सं० १६५४) व श्रीभूषण (वि०सं० १६५७) आदि के पाण्डवपुराण प्रमुख हैं। इस कथा को जैनाचार्यों ने बड़ी प्रगतिशीलता एवं बौद्धिकता के साथ प्रस्तुत किया है। त्रेसठशलाका महापुरुषों से सम्बद्ध संस्कृत साहित्य परिमाण में कहीं और अधिक है। जिनसेन का आदिपुराण, गुणभद्र (८वीं शती) का उत्तरपुराण (शक सं० ७७०), श्रीचन्द्र का पुराणसार (वि०सं० १०८०), दामनन्दि (११वीं शती) का पुराणसार संग्रह- मुनि मल्लिषेण का त्रिषष्टिमहापुराण (वि०सं० ११०४), आशाधर का त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र (वि०सं० १२८२), हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (वि०सं० १२२८) आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार अमृतचन्द्र का चतुविंशतिजिनेन्द्र संक्षिप्तचरितानि (१२३८ ई०), अमरचन्द्रसूरि का पद्मानन्द महाकाव्य (वि०सं० १२९४), वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित (११वीं शती), मानतुंगसूरि का श्रेयांसनाथचरित (वि०सं० १३३२), वर्धमानसूरि का वासुपूज्यचरित (वि०सं०.१२९९), ज्ञानसागर का विमलनाथचरित (वि०सं० १५१७), असग का शान्तिनाथपुराण (शक सं० ९१०), माणिक्यचन्द्रसूरि का शान्तिनाथचरित? १. जितप्रभसूरि, देवसूरि, भावचन्द्रसूरि आदि अनेक लेखकों के भी इस नाम से ग्रन्थ मिलते हैं। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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