Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 96
________________ ८९ को उसने प्रभावित किया तथा जनसाधारण भी उसके लोकरंजक स्वरूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । श्रवणवेलगोला, पोदमपुर, कोपळ, पुन्नाड, हुमच आदि प्राचीन जैन स्थल इनके प्रतीक हैं । यहाँ की मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनधर्म का विशेष योगदान रहा है । प्रमुख जैन साहित्यकार भी इसी क्षेत्र में हुए हैं। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी या उमास्वाति समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, जिनसेन, गुणभद्र, वीरसेन, सोमदेव आदि आयाच के नाम अग्रगण्य हैं। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जैनाचार्यों ने कन्नड़ साहित्य की रचना की। महाकवि कवितागुणार्णव पम्प ( ई० ९४१), कविचक्रवर्ती पोन्न ( ई० ९५०), कविरत्न रत्न ( ई० ९९३), वीरमार्तण्ड चामुण्डराय ( ई० ९७८ ), गद्य-पद्यविद्याधर श्रीधर ( ई० १०४९), सिद्धान्तचूड़ामणि दिवाकरनन्दि ( ई० १०६२), शान्तिनाथ ( ई० १०६८), नागचन्द्र ( ई० ११००), कन्ति ( ई० ११००), नयसेन ( ई० १११२), राजादित्य ( ई० १११०), कीर्तिवर्मा ( ई० ११२५), ब्रह्मशिव ( ई० ११३०), कर्णपार्य ( ई० ११४०), नागवर्मा (ई० ११४५), सोमनाथ ( ई० ११५०), वृत्तविलास ( ई० ११६०), नेमिचन्द (ई० ११७०), वोप्पण ( ई० ११८०) अग्गल ( ई० ११८९), आचरण (ई० ११९५ ), बन्धुवर्मा ( ई० १२००), पार्श्वनाथ ( ई० १२०५), जन्न ( ई० १२३०), गुणवर्मा ( ई० १२३५), कमलभाव (ई० १२३५), महावल ( ई० १२५४) आदि कवियों ने कन्नड़ साहित्य की श्रीवृद्धि की । व्याकरण, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि सभी क्षेत्रों में आधुनिक काल तक जैन लेखक कन्नड़ भाषा में साहित्य-सृजन करते रहे हैं। समूचे जैन कन्नड़ साहित्य की विस्तृत रूपरेखा देना यहाँ सम्भव नहीं। यह उसका संक्षिप्त विवरण है। मराठी जैन साहित्य मराठी साहित्य का प्रारम्भ भी जैन कवियों से हुआ है। उन्होंने १६६१ ई० से लेखन कार्य अधिक आरम्भ किया। जिनदास, गुणदास, मेघराज, कामराज, सूरिजन, गुणनन्दि, पुष्पसागर, महीजन्द्र, महाकीर्ति, जिनसेन, देवेन्द्रकीर्ति, कललप्पा, भरमापन आदि जैन साहित्यकारों ने मराठी में साहित्य तैयार किया। यह साहित्य अधिकांश रूप से अनुवाद रूप में उपलब्ध होता है । गुजराती जैन साहित्य गुजराती भाषा का भी विकास अपभ्रंश से हुआ है। लगभग १२वीं शती से अपभ्रंश और गंजराती में पार्थक्य दिखाई देने लगा। गुजरात प्रारम्भ से ही Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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