Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 84
________________ ওও और सप्ततिका नामक कर्मग्रन्थों पर आधारित है। कर्मप्रकृति पर दो संस्कृत टीकायें हैं- एक मलयगिरिकृत (१२-१३वीं शती) वृत्ति (८००० श्लोक प्रमाण) और दूसरी यशोविजय (१८वीं शती) कृत वृत्ति (१३००० श्लोक प्रमाण)। पञ्चसंग्रह की व्याख्याओं में दो व्याख्यायें महत्त्वपूर्ण हैं चन्द्रर्षि महत्तरकृत स्वोपज्ञवृत्ति (९००० श्लोक प्रमाण) तथा मलयगिरिकृत वृहदवृत्ति (१८८५० श्लोक प्रमाण)। छोटी-मोटी और भी टीकायें प्रकाशित हुई हैं। सिद्धान्त साहित्य आचार्य उमास्वाति (वि. १-२ शती) प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने प्राकृत में लिखित सिद्धान्त साहित्य को संस्कृत में सूत्र-बद्ध किया। उनके तत्त्वार्थ-सूत्र पर ही उत्तरकाल में सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि अनेक वृहत्काय ग्रन्थों की रचना हुई। उसके बाद आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थों पर संस्कृत में अनेक टीकायें रची गई। प्रवचनसार और समयसार पर अमृतचन्द्र (१०वीं शती) और जयसेन (१२वीं शती) की टीकायें, नियमसार पर पद्मप्रभ मलधारीदेव, पश्चास्तिकाय पर अमृतचन्द्र, जयसेन, ज्ञानचन्द्र, मल्लिषेण, प्रभाचन्द्र आदि की टीकायें तथा अट्ठपाहुड पर श्रुतसागर, अमृतचन्द्र, आदि की टीकायें मिलती हैं। जीववियार पर पाठक रत्नाकर (वि.सं. १६१०), मेघनन्दन (वि.सं. १६१०), समयसुन्दर तथा क्षमाकल्याण (वि.सं. १८५९) ने, जीवसमास पर हेमचन्द्र (६६२७ श्लोक प्रमाण) ने, समयखित्तसमास पर हरिभद्रसूरि, मलयगिरिसूरि व रत्नशेखरसूरि ने, पवयणसारुद्धार पर सिद्धसेनसूरि (वि.सं. १२४८) ने १६५०० श्लोक प्रमाण और उदयप्रभ ने ३२०३ श्लोक प्रमाण, तथा सत्तरिसयठाणपयरण पर देवविजय (वि.सं. १३७०) ने २१०० श्लोक प्रमाण टीकायें लिखी हैं। सिद्धान्त साहित्य में टीकात्मक ग्रन्थों की संख्या अवश्य अधिक है पर उनमें मौलिकता की कमी नहीं। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हैं। जैसे अमृतचन्द्रसूरि का पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, व तत्त्वार्थसार, माघनन्दी (१३वीं शती) का शास्त्रसार समुच्चय, तथा जिनहर्ष (वि.सं. १५०२) का विंशतिस्थानकविचारामृतसंग्रह (२८०० श्लोक परिमाण) उल्लेखनीय हैं। उपदेशात्मक साहित्य भी टीकात्मक अधिक है। मूलत: वे प्राकृत में लिखे गये हैं पर बाद में उन पर संस्कृत में टीकायें हुई हैं। जैसे- उवएसमाला पर लगभग बीस संस्कृत टीकायें हैं जिनमें सिद्धर्षि (वि.सं. १६२) और रत्नप्रभसरि (वि.सं. १२३८) की टीकायें अग्रगण्य कही जा सकती है। जयशेखर (वि.सं. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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