Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 52
________________ भी प्राचीनतर माना जा सकता है। उस काल के प्राकृत जैन साहित्य को “पूर्व' संज्ञा से अभिहित किया गया है जिसकी संख्या चौदह है - उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार। आज जो साहित्य उपलब्ध है वह भगवान् महावीररूपी हिमाचल से निकली वाग्गंगा है, जिसमें अवगाहनकर गणधरों और आचार्यों ने विविध प्रकार के साहित्य की रचना की है। परम्परागत साहित्य उत्तरकाल में यह साहित्य दो परम्पराओं में विभक्त हो गया- दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा। दिगम्बर परम्परा के अनुसार जैन साहित्य दो प्रकार का है - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। अंगप्रविष्ट में बारह ग्रन्थों का समावेश है - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्त:कृद्दशांग अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण और दृष्टिवाद। दृष्टिवाद के पांच भेद किये गये हैं – परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। पूर्वगत के ही उत्पाद आदि पूर्वोक्त चौदह भेद हैं। इन अंगों के आधार पर रचित ग्रन्थ अंगबाह्य कहलाते हैं जिनकी संख्या चौदह है -- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक महापुण्डरीक और निषिद्धिका। दिगम्बर परम्परा इन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों को विलुप्त हुआ मानती है। उसके अनुसार भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् अंगग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लगे। मात्र दृष्टिवाद के अन्तर्गत आये द्वितीय पूर्व आग्रायणी के कुछ अधिकारों का ज्ञान आचार्य धरसेन के पास शेष था, जिसे उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को दिया। उसी के आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम जैसे विशालकाय ग्रन्थ का निर्माण किया। श्वेताम्बर परम्परा में ये अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थ अभी भी उपलब्ध हैं। अंगबाह्य ग्रन्थों के सामायिक आदि प्रथम छह ग्रन्थों का अन्तर्भाव कल्प, व्यवहार और निशीथसूत्रों में हो गया। अनुयोग साहित्य अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों के आधार पर जो ग्रन्थ लिखे गये उन्हें चार विभागों में विभाजित किया गया है – प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग। प्रथमानुयोग में ऐसे ग्रन्थों का समावेश होता है जिनमें पुराणों, चरितों और आख्यायिकाओं के माध्यम से सैद्धान्तिक तत्त्व प्रस्तुत किये जाते Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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