Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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ठोकी-पीटी गईं, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाये। अपने मत को सिद्ध करने के लिए उन्होंने सर्वप्रथम वैदिक शब्दों से साम्य बताया और बाद में मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय बोलियों में सन्निहित प्राकृत भाषागत विशेषताओं को स्पष्ट किया।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिस प्रकार वैदिक भाषा उस समय की जनभाषा का परिष्कृत रूप है, उसी प्रकार साहित्यिक प्राकृत उत्तरकालीन बोलियों का परिष्कृत रूप है। उत्तरकाल में तो वह संस्कृत व्याकरण, भाषा और शैली से भी प्रभावित होती रही। फलत: लम्बे-लम्बे समास और संस्कृत से परिवर्तित प्राकृत रूपों का प्रयोग होने लगा। प्राकृत व्याकरणों की रचना की आधारशिला में भी इसी प्रवृत्ति ने काम किया। प्राकृत का ऐतिहासिक विकासक्रम
प्राकृत का ऐतिहासिक विकास भी हम तीन स्तरों में विभाजित कर सकते हैं - १. प्रथम स्तरीय प्राकृत – (१६०० ई०पू० से ६०० ई०पू०) – इस
काल की जनबोली का रूप वैदिक या छान्दस् ग्रन्थों में मिलता है। द्वितीय स्तरीय प्राकृत – इस काल में प्राकृत में जो साहित्य लिखा गया उसे तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है - i) प्रथम युगीन प्राकृत (६०० ई०पू० से ५०० ई०) - i) अर्ध प्राकृत, (पालि, अर्धमागधी और जैन शौरसेनी), (ii) शिलालेखी प्राकृत, (iii) निया प्राकृत, (iv) प्राकृत धम्मपद की प्राकृत, (v) अश्वघोष के नामों की प्राकृत। ii) द्वितीय युगीन प्राकृत (प्रथम शती से बारहवीं शती तक) - अलङ्कार, व्याकरण, काव्य और नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतें- महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची। iii) तृतीय युगीन प्राकृत (पञ्चम शती से पन्द्रहवीं शती तक) - अपभ्रंश।
१. भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि.सं., पृ. ७४.
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