Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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(१२) वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और कर्मवाद
जैन संस्कृति वैयक्तिक स्वातन्त्र्य पर विश्वास करती है। इसलिए उसने व्यक्ति को ही उसके सुख-दुःख का पूर्ण उत्तरदायी बनाया है। ज्ञान और अध्यात्म में समन्वय स्थापित कर हमारे आचरण की कार्य-कारणात्मक मीमांसा में उसने कर्मवाद को स्थापित कर ईश्वरवाद को नकार दिया है। संसार की विभिन्नता में कर्म को भी कारण बतलाकर उसे अनादि तथा शान्त बताया और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को पूर्ण वीतरागता तथा विशुद्धि के माध्यम से प्रशस्त किया।
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कर्म अदृश्य है और पौद्गलिक है। उसे हम वासना और संस्कार नहीं कह सकते, क्योंकि वे तो धारणा या स्मृति से सम्बद्ध हैं। अच्छाई या बुराई से उसका कोई सम्बन्ध नहीं । उसका सम्बन्ध है हमारे कर्म से, राग-द्वेष से । ग-द्वेष का वलय ही हमारे आचरण का आधार बन जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के योग से कर्माश्रव होते हैं। वे सहज नहीं, आगन्तुक हैं। उनके वर्तमान के साथ अतीत और भविष्य भी जुड़ा रहता है।
राग
अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का संयोग सम्बन्ध वैसे ही हो जाता है। जैसे अमूर्त आकाश का मूर्तघट से सम्बन्ध होकर वह घटाकाश, पटाकाश की संज्ञा पा जाता है। यह पौद्गलिक कर्म हमारे भावकर्म पर निर्भर करता है। भावचित्त का संवादी होता है। पौद्गलिकचित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता हैस्थूल शरीर | कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों आपस में गुंथे हुए हैं। उन्हें किसी ईश्वररूप नियन्ता या नियामक की आवश्यकता नहीं होती । कर्म का विपाक स्वयं हो जाता है या तप से उनकी निर्जरा कर ली जाती है। इसे हम उदात्तीकरण या मार्गान्नरीकरण भी कह सकते हैं।
आत्मा में अचिन्त्य ज्ञान-दर्शन शक्ति का प्रस्फुटन कर्म - निर्जरा के बाद ही होता है । इस अवस्था को कोई भी व्यक्ति अपनी साधना से प्राप्त कर सकता है। यहां आत्मा की ही तीन अवस्थायें हैं। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा संसारावस्था है। अन्तरात्मा विशुद्ध पथ पर चलना है और परमात्मा पूर्ण वीतराग अवस्था है। ईश्वर का कोई स्थान नहीं है । संसार की सृष्टि निमित्तउपादान से स्वयमेव होती रहती है। व्यक्ति अपने ही श्रम और पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है
(१३) दार्शनिक अवदान
जैनधर्म की समूची अवधारणाएं स्वानुभूति पर टिकी हुई हैं। इसलिए अहिंसा और समतावाद इस दर्शन की मूल भित्ति बनी। दार्शनिक क्षेत्र में भी इसी भित्ति
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