Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 37
________________ ३० टूट जाती हैं और अमानवीय भावनाओं को अनधिकृत प्रवेश मिल जाता है। हमारी सारी राजनीति का केन्द्र-बिन्दु आज धर्म और जाति बन गया है। धर्मनिरपेक्षता की बात आज मात्र धोखे की टट्टी हो गई है। शैक्षणिक संस्थायें भी इस कराल गरल से बच नहीं पा रही हैं। कुर्सी बचाने और पाने की प्रवृत्ति ने हमारी नैतिकता पर कठोर पदाघात किया है। उसने नयी पीढ़ी के खून में अजीबोगरीब मानसिकता भर दी है, संस्कार दूषित कर दिये हैं और निकम्मेपन और कठमुल्लेपन को जन्म दिया है। आज भले और ईमानदार आदमी का जीवन दूभर होता जा रहा है। उसकी कराहती आवाज को सुनने वाला तो दूर सान्त्वना देने वाला भी नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में हमारा देश कहाँ जायेगा यह अनबुझी पहेली बन गई है। इतिहास के भूले-बिसरे पत्रों को यदि हम खोलकर पढ़ें तो यह तथ्य उद्घाटित हुए देर नहीं लगेगी कि हमारी भारतीय संस्कृति का धवल आँचल कभी मैला नहीं हुआ। आदिकाल से लेकर अभी तक वर्ण व्यवस्था की मूल आत्मा जब भी अपने पथ से भटकी, समाज में क्रूरता के दर्शन अवश्य हुए पर उस स्वार्थपरता भरी अहंमन्यता को वास्तविकता का चोला नहीं माना जा सकता। वह तो वस्तुतः ऐसी सड़ांध रही है जिसमें गर्दीली जातीयता और धार्मिक कट्टरता पनपी और न जाने कितने असहाय वर्गों को वैतरणी का विषपान करना पड़ा। ऐसे अपुनीत, असामाजिक और मानवीय दूषित कदमों को भारतीय संस्कृति का अंग नहीं कहा जा सकता। वह तो वस्तुतः विकृत मानसिकता का अंग रही है । आर्य-अनार्य की भेदक रेखा के पीछे भी ऐसे ही गर्हित तत्त्वों का हाथ रहा है। सरस्वती नदी का तट ऋग्वैदिक मन्त्रों से पवित्र हुआ पर धर्म के नाम पर पशु-हिंसा से उसका पुनीत जल रक्तरंजित होने से भी नहीं बच सका। ऋग्वैदिक कालीन नैतिक आदर्शों की व्याख्या उत्तरकाल में बदलनी पड़ी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और यदुवंशी भगवान् कृष्ण ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों के बीच की सुदृढ़ कड़ियाँ बन गये और भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक मूल स्वर और अधिक मिठास लेकर गुञ्जित होने लगे। इस मिठास को पैदा करने में जैनधर्म का बेजोड़ हाथ रहा है। 1 ब्राह्मण परम्परा की अनुश्रुतियों में लिच्छिवि, मल्ल, मोरिय आदि जातियों को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जन्मतः क्षत्रिय और आर्य जाति के थे, जो मूलतः मध्य देश के पूर्व या उत्तर-पश्चिम में रहते थे। उनकी भाषा प्राकृत थी और वेशभूषा अपरिष्कृत थी। वे चैत्यों की पूजा करते थे। आर्य द्रविड़ों, नाग, पणि और Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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