Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 30
________________ २३ है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टि पंच परमेष्ठियों की आराधना-भक्ति करता है, विशुद्ध भावों के साथ उनके प्रति अनुराग व्यक्त करता है। यह भक्ति-दर्शन-विशुद्धि आदि के बिना हो नहीं सकती। इस भक्ति की छह आवश्यक क्रियायें हैं - सामायिक, वन्दना, स्तुति, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग। स्तुतियों में तीर्थङ्करों का स्तवन होता है और कायोत्सर्ग में निश्छल सीधे खड़े होकर २७ श्वासों में णमोकार मन्त्र का जप किया जाता है। प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति पाठों का निर्देश है। दैनिक और नैमित्तिक क्रियाओं में इन्हीं भक्तिपाठों का प्रयोग किया जाता है। भक्ति तन्त्र से मन्त्र परम्परा का उद्भव हुआ। भक्ति के प्रवाह में आकर साधक परमात्मा की स्तुति करता है और उस स्तुति में वह वाचाल हो उठता है। मन्त्र उस वाचालता को कम करता है और मन को एकाग्र करके आध्यात्मिक अनुभव को पाने का प्रयत्न करता है। नामस्मरण, श्रवण, मनन, चिन्तन की पृष्ठभूमि में मन्त्र की उत्पत्ति होती है, मांगलिक कार्य करने के लिए इष्टदेव की स्तुति होती है, समास-पद्धति का आधार लेकर भगवान् का अनुचिन्तन होता है और मंगलवाक्य के रूप में मन्त्र की रचना हो जाती है। विस्तार से समास की ओर जाने की यह एक सर्वमान्य स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मन्त्र-तन्त्र परम्परा भी उसी से सम्बद्ध है। स्वानुभूति की सरसता का पान करने के लिए मन्त्र ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें मानसिक चंचलता की दौड़ को विराम दिया जा सकता है। इसलिए मन्त्र की परिधि में समग्र तत्त्व-चिन्तन आ जाता है जो हमारे शुभ-अशुभ भावों के साथ घूमता रहता है। मन्त्र की सार्थकता हमारे भावों पर अधिक निर्भर करती है। जैनधर्म चूँकि भावों की शुद्धि और अहिंसक आचरण पर अधिक जोर देता है इसलिए शैव और वैष्णव शाक्त परम्पराओं का प्रभाव होने पर भी जैन मन्त्र-तन्त्र परम्परा पर उनकी हिंसक मान्यता की कोई छाप दिखाई नहीं देती। कोई भी यक्ष, यक्षिणी, देवी-देवता ऐसा नहीं माना गया जिसका आकार-प्रकार वीभत्स और दुष्ट हो या हिंसा की गन्ध उसमें आती हो। यह विशेषता जैन संस्कृति की प्रगाढ़ अहिंसक भावना का फल है। हवन, यज्ञ आदि क्रियायें भी यद्यपि जैन संस्कृति की मूल क्रियायें नहीं हैं फिर भी उन्हें धर्म का अंग मान लिया गया है। आचार्य हरिभद्र और जिनसेन के चिन्तन में इन क्रियाओं को वैदिक संस्कृति से लेकर अपने ढंग से आत्मसात् १. नियमसार, १३४; समयसार, ता.वृ. १७४-१७६. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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