Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है- सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गःतत्त्वार्थसूत्र १.१ । रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिये१. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३ २. धम्मो णाम सम्मइंसण-णाण-चरित्ताणि- धवला, पु. ८, पृ. ९२. ३. सम्यग्दृष्टि- प्राप्ति चारित्रं धर्मो रत्नत्रयात्मकः - लाटीसंहिता, ४.२३७-३८. .. मोक्ष-प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण सभी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है। तत्त्वार्थवार्तिक (१.१, पृ. १४) में इस सन्दर्भ में बड़े अच्छे दो श्लोक उद्धृत हुए हैं -
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।। संयोगमेवेह वहन्ति तज्ज्ञानमेकचक्रेण रथः प्रयाति। अन्यश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ।।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है -- तच्चरुई सम्मत्तं-मोक्खपाहुड, ३८। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है। वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रकट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति से सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रमाण और नय इसी सीमा में आते हैं। सम्यक्त्व का महत्त्व "दंसणभट्टा भट्टा" गाथा से भली-भांति स्पष्ट हो जाता है।
सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है जिसमें कोई पाप-क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों। यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है - गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है दूसरा महाव्रत है। इनमें अणुव्रतों की संख्या बारह है - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामायिक,
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