Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 22
________________ आपादमग्न समाज को एक नई दिशा दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्भाल कर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के स्वर बदल जाते हैं। समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को सम्मान देने के लिए और निष्पक्षता, निवैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिये। ___सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति-नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेमपूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देते हैं। चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में “न या सियावाय वियागरेज्जा" का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने "उदधाविव समुदीर्णास्त्वयि नाथ! दृष्ट्यः” कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है। हरिभद्रसूरि की भी समन्वय-साधना इस सन्दर्भ में स्मरणीय है - भववीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णु र्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। (७) अहिंसा और अपरिग्रह जैन संस्कृति अहिंसा और परिग्रह मूलक है। इसलिए धर्म के गुणात्मक स्वरूप पर चिन्तन करते समय जैनाचार्यों ने व्यक्ति और समाज को परस्पर-निष्ठ बताया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धर्म वस्तुत: आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से सम्भव है। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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