Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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(धारणात्, धर्ममित्याहः धर्मेण विधृताः प्रजा:)। यह वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है, किसी भी वस्तु का वह मूल तत्त्व, जिसके कारण वह वस्तु है। वेदों में इस शब्द का प्रयोग धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है। छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्धों) का उल्लेख किया गया है जिनका सम्बन्ध गृहस्थ, तपस्वी और ब्रह्मचारियों के कर्त्तव्यों से है- (त्रयो धर्मस्कन्धा: २.३)। जब तैत्तिरीय उपनिषद् हमसे धर्माचरण (धर्मं चर- १.११) करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें कि हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग भगवद्गीता और मनुस्मृति दोनों में हुआ है। बौद्ध धर्म के लिए यह शब्द धर्म, बुद्ध और संघ या समाज के साथ-साथ 'त्रिरत्न' में से एक है। पूर्व मीमांसा के अनुसार धर्म एक वांछनीय वस्तु है, जिसकी विशेषता है प्रेरणा देना- चोदना लक्षणार्थो धर्मः। वैशेषिकसूत्रों में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिससे आनन्द (अभ्युदय) और परमानन्द (निःश्रेयस्) की प्राप्ति हो, वह धर्म है – यतोभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः।
जैनधर्म आर्हत् धर्म है। १ उसकी संस्कृति वीतरागता से उद्भूत हुई है जहाँ कर्मों को नष्ट कर, उनकी निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है। इसलिए जैनाचार्यों ने अपनी संस्कृति के मूल में धर्म को संयोजित किया है और उसे जीवन के हर पक्ष से जोड़ने का प्रयत्न किया है। जैन संस्कृति को समझने के लिए उसमें निहित धर्म की विविध परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। इन परिभाषाओं को हम स्थूल रूप से इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं -
१. धर्म का सामान्य स्वरूप, २. धर्म का स्वभावात्मक स्वरूप, ३. धर्म का गुणात्मक स्वरूप, और ४. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप।
इन स्वरूपों के माध्यम से ही हम जैन संस्कृति की मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयत्न करेंगे।
१.
जैनधर्म के साथ सम्प्रदायवाची जैन शब्द लगभग आठवीं शती में जुड़ा। इसके पूर्व उसे आर्हत् धर्म ही कहते थे। वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी आर्हत धर्म और दिगम्बर शब्दों का प्रयोग हुआ है।
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