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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
किया था, अतः तु मेरे लिए त्याज्य है। प्रत्युत्तर में उसने कहामुझे गतियुद्ध में तुमने ही जीता है, मैं दूसरे के गले में वरमाला कैसे डाल सकती हूँ ?९९ यह कहकर उसने दीक्षा ली और उसके असाधारण त्याग को देखकर तीनों भाइयों को भी विरक्ति हुई । १००
जिनसेन के अभिमतानुसार चिन्तागति, मनोगति और चपलगति ये तीनों ही भाई प्रीतिमती से पराजित होने पर अत्यन्त दुःखी हुए
और उन्होने दमधर मुनिराज के समीप दीक्षा ग्रहण की।' उत्कृष्ट तप की आराधना कर अन्त में समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया और तीनों भाई माहेन्द्र स्वर्ग के अन्तिम पटल में सात सागर की आय वाले देव बने । वे दो भाई वहाँ से च्यत होकर पूष्कलावती में गगनचन्द्र राजा के अमितवेग और अमिततेज पुत्र हुए। स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षा ग्रहण की । भगवान् के मुखारविन्द से पूर्वभव सुने । मुनि ने राजा को पुनः सम्बोधित कर कहा-'राजन् ! तुम हमारे पूर्वभव में ज्येष्ठभ्राता चिन्तागति थे। माहेन्द्र स्वर्ग से आयु पूर्ण कर तुम यहाँ पर अपराजित राजा बने हो। सर्वज्ञ प्रभु से यह बात जानकर हम तुमसे मिलने के लिए यहाँ आये हैं।' जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि तुम पाँचवें भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अरिष्टनेमि नामक बावीसवें तीर्थंकर बनोगे।" इस समय
६६. श्रुततद्वचना साह नाहं जितवतोऽपरैः । मालामिमां क्षिपामीति स तामित्यब्रवीत् पुनः ॥
-उत्तरपुराण ७०।३३, पृ० ३४१ १००. उत्तरपुराण ७०।३६ १. गतियुद्ध जितास्तेऽपि चिन्तागत्यादयस्तया । दीक्षां दमवरस्यान्ते त्रयोऽपि भ्रातरो दधुः ।।
-हरिवंशपुराण ३४।३२, पृ० ४२१ २. हरिवश० ३४१३३, पृ० ४२१ ३. हरिवंशपुराण ३४।३४-३५, पृ० ४२१ ४. हरिवंशपुराण ३४।३६-३७, पृ० ४२२ । ५. अरिष्टनेमिनामाईन् भविता भरतावनौ। हरिवंशमहावंशे त्वमितः पञ्चमे भवे ।।
-हरिवंश० ३४।३८, पृ० ४२२
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