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अरिष्टनेमिः पूर्वभव
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केवली भगवान् ने कहा -- धनकुमार के भव में धनवती नामक यह तुम्हारी पत्नी थी । वहाँ से सौधर्म देवलोक में तुम दोनों मित्र के रूप में रहे । वह चित्रगति के भव में रत्नवती नामक तुम्हारी पत्नी हुई | माहेन्द्र देवलोक में पुनः मित्र रूप में रहे । अपराजित के भव में प्रीतिमती नामक पत्नी हुई, और आरण देवलोक में पुनः मित्र बने । सातवें भव में यह यशोमती है । पुराना सम्बन्ध होने के नाते तुम्हारा इस पर अत्यधिक अनुराग है । यहाँ से आयु पूर्ण कर तुम दोनों अपराजित नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न होओगे । वहाँ से जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में तुम बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि बनोगे और यशोमती रानी उस समय राजीमती के रूप में जन्म लेगी । विवाह न होने पर भी यह तुम्हारे प्रति अत्यन्त अनुरक्त रहेगी, अन्त में तुम्हारे पास दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त करेगी । तुम्हारे यशोधर और गुणधर जो लघुबन्धु हैं वे तथा मतिप्रभ नामक मंत्री भी तुम्हारे गणधर बनेंगे और अन्त में सिद्धिवरण करेंगे | २४
शंख राजा ने अपने पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर अपने दोनों छोटे भाइयों, मंत्री एवं यशोमती पत्नी के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की । २५ शंखमुनि ने आगम साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। फिर उत्कृष्ट तप की साधना की । तीर्थंकरत्व की प्राप्ति के लिए जिन बीस निमित्तों की आराधना अपेक्षित है, वे इस प्रकार हैं
१ अरिहन्त की आराधना ।
२ सिद्ध की आराधना ।
३ प्रवचन की आराधना ।
४ गुरु का विनय ।
५ स्थविर का विनय ।
६ बहुश्रुत का विनय ।
७ तपस्वी का विनय ।
२४. त्रिषष्टि० ८।१।५२६-५३१
२५. त्रिषष्टि० ८।१।५३२
२६. गीतार्थोऽभूत्क्रमाच्छंखस्तपस्तेपे च दुस्तपम् । अर्हद्भक्त्यादिभि: स्थानैस्तीर्थ कृत्कर्मचार्जयत् ॥
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- त्रिषष्टि० ८।११५३३
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