Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 434
________________ ४०२ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण दर्शन--सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के विशेष धर्मों को गौणकर केवल सामान्य धर्मो को ग्रहण करना । दर्शन का दूसरा अर्थ फिलोसफी है । दशाह-समुद्रविजय, आदि दस यादवों को दशाह कहा जाता है। उनके समूह को दशार्ह चक्र भी कहा जाता है । दिक्कुमारियां-तीर्थंकरों का प्रसूति कर्म करने वाली देवियां । इनकी संख्या ५६ है । इनके आवास विभिन्न होते हैं । आठ अधोलोक में, आठ ऊर्ध्वलोक में-मेरु पर्वत पर, आठ पूर्व रुचकाद्रि पर, आठ दक्षिण रुचका द्रि पर, आठ पश्चिम रुचकाद्रि पर आठ उत्तर रुचकाद्रि पर, चार विदिशा के रुचक पर्वत पर, और चार रुचक द्वीप पर रहती हैं । देवानुप्रिय-आदर व स्नेहपूर्ण सम्बोधन । देवदूष्यवस्त्र-देव द्वारा प्रदत्त वस्त्र । द्वादशांगी-तीर्थंकरों की वाणी का गणधरों द्वारा ग्रन्थ रूप में होने वाला संकलन अंग कहलाता है । वे संख्या में बारह होते हैं, अतः वह सम्पूर्ण संकलन द्वादशाङ्गी कहलाता है । पुरुष के शरीर में जैसे दो पैर, दो जंघाएँ, दो ऊरु, दो गात्रार्द्ध (पार्श्व) दो बाहु एवं गर्दन और एक मस्तक होता है उसी प्रकार श्रुत पुरुष के भी बारह अंग हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं ---१ आचारांग, २ सूत्रकृताङ्ग ३ स्थानाङ्ग ४ समवायाङ्ग, ५ विवाह प्रज्ञप्ति, ६ ज्ञाता धर्म कथांग ७ उपासक दशांग, ८ अन्तकृतदशा ६ अनुत्तरोपपातिक, १० प्रश्नव्याकरण ११ विपाक, १२ दृष्टिवाद । धर्मयान-धार्मिक कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला वाहन । नरक-अधोलोक के वे स्थान जहां घोर-पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए उत्पन्न होते हैं । नरक सात हैं (१) रत्नप्रभा-रत्नों की सी आभा से युक्त । (२) शर्कराप्रभा- भाले बरछी आदि से भी अधिक तीक्ष्ण कंकरों से परिपूर्ण । (३) वालुकाप्रभा-भडभूजे की भाड़ की उष्ण बालू से भी अधिक उष्ण बालू । (४) पंकप्रभा-रक्त मांस और मवाद जैसे कीचड़ से व्याप्त । (५) धूमप्रभा----राई, मिर्च के धुए से भी अधिक खारे धुए से परिपूर्ण । (६) तमःप्रभा-घोर अंधकार से परिपूर्ण (७) महातमःप्रभा-घोरातिघोर अंधकार से परिपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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