Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 436
________________ ४०४ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण (२) अनिर्हारिम-जो साधु अरण्य में हो पादपोपगमपूर्वक देहत्याग करते हैं, उनका शव संस्कार के लिए कहीं पर भी बाहर नहीं ले जाया जाता, अतः वह देह-त्याग अनिर्हारिम कहलाता है। पाप-अशुभ कृत्य । उपचार से पाप के कारण भी पाप कहलाते हैं। पौषध-एक अहोरात्र के लिए चारों प्रकार के आहार और पाप पूर्ण, प्रवृत्तियों का त्याग करना। प्रत्याख्यान--त्याग करना। प्रायश्चित्त–साधना में लगे हुए दूषण की विशुद्धि के लिए हृदय से पश्चात्ताप करना । उसके दस प्रकार हैं : (१) आलोचना- लगे हुए दोष गुरु या रत्नाधिक के समक्ष यथावत् निवेदन करना। (२) प्रतिक्रमण--अशुभ योग से शुभ योग में आना; लगे हुए दोषों के लिए साधक द्वारा पश्चात्ताप करते हुए कहना, मेरा पाप मिथ्या हो । (३) तदुभय- आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों । (४) विवेक-अनजान में आधाकर्म आदि दोष से युक्त आहार आ जाय तो ज्ञात होते ही उसे उपभोग में न लेकर त्याग देना । (५) कायोत्सर्ग--एकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग करना। (६) तप-अनशन आदि बारह प्रकार की तपश्चर्या । (७) छेद दीक्षा पर्याय को कम करना । इस प्रायश्चित्त के अनुसार जितना समय कम किया जाता है उस अवधि में दीक्षित छोटे साधु दीक्षा पर्याय में उस दोषी साधु से बड़े एवं वन्दनीय हो जाते हैं। (८) मूल-मूलव्रत भंग होने पर पुनर्दीक्षा (8) अनवस्थाप्य तप विशेष के पश्चात् पुनर्दीक्षा । (१०) पारञ्चितक-संघ-बहिष्कृत साधु द्वारा एक अवधि विशेष तक साधु-वेश परिवर्तित कर जन-जन के बीच अपनी आत्मनिन्दा करना। प्रीतिदान-शुभ संवाद लाने वाले कर्मकर को दिया जाने वाला दान । प्रतिलाभ-लाभान्वित करना, बहराना पौषधशाला-धर्म-ध्यान एवं पोषध करने का स्थान विशेष । बंध-आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों का घनिष्ट सम्बन्ध । बलदेव-वासुदेव के ज्येष्ठ विमातृ बन्धु । हरएक उत्सर्पिणो अवसर्पिणी काल में नौ-नौ होते हैं । कृष्ण के भ्राता बलदेव नौवें बलदेव थे, इनका नाम बलराम था । बलदेव की माता चार स्वप्न देखती है वासुदेव की मृत्यु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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